Read Quran translation in Hindi with verse-by-verse meaning and time-relevant explanations for deeper understanding.

कुरआन की आयत 2:215 (सूरह अल-बक़ारह) - पूर्ण व्याख्या

 

१. आयत का अरबी पाठ (Arabic Verse)

يَسْـَٔلُونَكَ مَاذَا يُنفِقُونَ ۖ قُلْ مَآ أَنفَقْتُم مِّنْ خَيْرٍ فَلِلْوَٰلِدَيْنِ وَٱلْأَقْرَبِينَ وَٱلْيَتَـٰمَىٰ وَٱلْمَسَـٰكِينِ وَٱبْنِ ٱلسَّبِيلِ ۗ وَمَا تَفْعَلُوا۟ مِنْ خَيْرٍ فَإِنَّ ٱللَّهَ بِهِۦ عَلِيمٌ

२. शब्दार्थ (Word-by-Word Meaning)

अरबी शब्दहिंदी अर्थ
يَسْـَٔلُونَكَवे आपसे पूछते हैं
مَاذَاक्या चीज़
يُنفِقُونَवे खर्च करें (दान दें)
قُلْआप कह दीजिए
مَآजो (भी)
أَنفَقْتُمतुमने खर्च किया
مِّنमें से
خَيْرٍअच्छाई (धन, मदद)
فَلِلْوَٰلِدَيْنِतो माँ-बाप के लिए है
وَٱلْأَقْرَبِينَऔर रिश्तेदारों के लिए
وَٱلْيَتَـٰمَىٰऔर अनाथों के लिए
وَٱلْمَسَـٰكِينِऔर मिस्कीनों (गरीबों) के लिए
وَٱبْنِ ٱلسَّبِيلِऔर मुसाफिर के लिए
وَمَاऔर जो (भी)
تَفْعَلُوا۟तुम करोगे
مِنमें से
خَيْرٍअच्छाई
فَإِنَّतो निश्चित रूप से
ٱللَّهَअल्लाह
بِهِۦउससे
عَلِيمٌपूरी तरह जानने वाला है

३. पूर्ण अनुवाद और सरल व्याख्या (Full Translation & Simple Explanation)

अनुवाद: "वे आपसे पूछते हैं कि वे क्या खर्च करें (दान दें)? आप कह दीजिए: जो कुछ भी अच्छाई (माल) तुम खर्च करो, वह माता-पिता, रिश्तेदारों, अनाथों, गरीबों और मुसाफिरों के लिए है। और तुम जो कुछ भी अच्छाई करोगे, निश्चय ही अल्लाह उसे जानने वाला है।"

सरल व्याख्या:
यह आयत मुसलमानों द्वारा पूछे गए एक व्यावहारिक सवाल का जवाब देती है। लोग पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से पूछते हैं कि अल्लाह की राह में खर्च (इन्फाक) किस पर और कैसे करें? अल्लाह का जवाब बहुत स्पष्ट और व्यवस्थित है। वह दान देने के लिए प्राथमिकता का एक क्रम बताता है: सबसे पहले अपने माता-पिता, फिर नज़दीकी रिश्तेदार, फिर अनाथ, फिर गरीब और फिर ऐसा मुसाफिर जो सफर में मुसीबत में फंस गया हो। आयत का अंत इस महत्वपूर्ण बात के साथ होता है कि तुम जो कुछ भी अच्छाई करते हो, अल्लाह उसके बारे में पूरी तरह जानता है, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, गुप्त हो या प्रकट।

४. गहन व्याख्या, शिक्षा और संदेश (In-depth Explanation, Lesson & Message)

यह आयत सामाजिक न्याय और आर्थिक जिम्मेदारी का एक मौलिक सिद्धांत स्थापित करती है।

क. "वे आपसे पूछते हैं..." (यसअलूनका माज़ा युनफिकून):

  • जिज्ञासा और इच्छा: यह सवाल दर्शाता है कि नए मुसलमान अल्लाह को खुश करने के लिए दान देना चाहते थे, लेकिन उन्हें यह जानने की जरूरत थी कि सही तरीका क्या है।

  • व्यावहारिक मार्गदर्शन: कुरआन सिर्फ दार्शनिक शिक्षाएं ही नहीं देता, बल्कि जीवन के व्यावहारिक पहलुओं पर सीधे मार्गदर्शन भी देता है।

ख. दान के प्राथमिकता क्रम का सिद्धांत:
अल्लाह ने दान देने का एक तार्किक और मानवीय क्रम बताया है:

  1. अल-वालिदैन (माता-पिता): सबसे पहला हक माता-पिता का है। उनकी सेवा और उनपर खर्च करना सबसे बड़े पुण्य के कामों में से एक है।

  2. अल-अक़रबीन (रिश्तेदार): फिर अपने नज़दीकी रिश्तेदारों का नंबर आता है। इससे पारिवारिक संबंध मजबूत होते हैं और समाज में पारस्परिक सहायता का ढांचा बनता है।

  3. अल-यतामा (अनाथ): फिर उन बच्चों का हक है जिनके पालन-पोषण करने वाले नहीं हैं। समाज में सबसे कमजोर वर्ग की देखभाल करना ईमान का हिस्सा है।

  4. अल-मसाकीन (गरीब और जरूरतमंद): उन लोगों का हक जिनके पास अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए भी पर्याप्त नहीं है।

  5. इब्निस सबील (मुसाफिर): वह व्यक्ति जो सफर के दौरान अस्थायी रूप से मुसीबत में फंस गया हो और उसके पास पैसे न हों।

ग. "अल्लाह उसे जानने वाला है" (इन्नल्लाहा बिही अलीम):

  • हर चीज का रिकॉर्ड: इस वाक्य का बहुत गहरा असर है। इसका मतलब है कि अल्लाह हर छोटे-बड़े दान को देख रहा है, भले ही कोई इंसान न देखे।

  • इनाम का वादा: यह एक अप्रत्यक्ष वादा है कि कोई भी अच्छाई, चाहे वह कितनी भी छोटी क्यों न हो, अल्लाह के यहाँ बर्बाद नहीं जाएगी। उसका पूरा बदला दिया जाएगा।

  • नीयत की शुद्धता: चूंकि अल्लाह नीयत भी जानता है, इसलिए दान सिर्फ अल्लाह की रज़ा के लिए होना चाहिए, दिखावे के लिए नहीं।

प्रमुख शिक्षाएँ (Key Lessons):

  1. सामाजिक जिम्मेदारी: इस्लाम व्यक्ति को समाज के प्रति जिम्मेदार बनाता है। दान सिर्फ एक पुण्य का काम नहीं, बल्कि एक सामाजिक कर्तव्य है।

  2. प्राथमिकता का क्रम: अच्छाई करने का भी एक तरीका और क्रम होता है। सबसे पहले अपने नजदीकियों का हक अदा करो।

  3. अल्लाह की निगरानी में विश्वास: एक मोमिन हमेशा इस एहसास के साथ काम करता है कि अल्लाह उसे देख रहा है। यह एहसास उसे ईमानदार और नेक बनाए रखता है।

  4. समाज सुधार: यह आयत एक ऐसे समाज की नींव रखती है जहाँ हर व्यक्ति की बुनियादी जरूरतों का ध्यान रखा जाता है और कोई भी भूखा या बेसहारा नहीं रहता।

५. अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future)

अतीत में प्रासंगिकता:
यह आयत मदीना में उस समय उतरी जब इस्लामी समाज का गठन हो रहा था। नए मुसलमान, जिनमें मुहाजिरीन (मक्का से आए विस्थापित) भी शामिल थे, जानना चाहते थे कि अपनी कमाई का सबसे अच्छा इस्तेमाल कैसे करें। इस आयत ने उन्हें एक स्पष्ट दिशा दी और एक ऐसी समाजव्यवस्था की बुनियाद रखी जो पारिवारिक और सामाजिक सुरक्षा पर आधारित थी।

वर्तमान में प्रासंगिकता:
आज के युग में यह आयत अत्यधिक प्रासंगिक है:

  • पारिवारिक संबंधों का टूटना: आज के भौतिकवादी युग में परिवार और रिश्तेदारों के बीच का बंधन कमजोर हो रहा है। यह आयत हमें याद दिलाती है कि हमारी सबसे पहली जिम्मेदारी अपने माता-पिता और रिश्तेदारों के प्रति है।

  • जकात और सदक़ा का वितरण: जकात (अनिवार्य दान) और सदक़ा (ऐच्छिक दान) को वितरित करने का यही सिद्धांत है। इस्लामी बैंक और दान संस्थाएं इसी प्राथमिकता क्रम को ध्यान में रखकर काम करती हैं।

  • सामाजिक कल्याण: यह आयत आधुनिक सामाजिक कल्याण (Social Welfare) की अवधारणा से कहीं आगे की बात करती है। यह सरकार पर निर्भर न रहकर, व्यक्ति को सीधे तौर पर समाज के लिए जिम्मेदार बनाती है।

  • व्यक्तिगत प्रेरणा: आज भी हर मुसलमान यह सोचता है कि उसके दान का सबसे अच्छा इस्तेमाल कहाँ हो सकता है। यह आयत उसे एक स्पष्ट मार्गदर्शन देती है।

भविष्य में प्रासंगिकता:

  • शाश्वत मार्गदर्शन: जब तक मानव समाज रहेगा, गरीबी, अनाथ और जरूरतमंद लोग मौजूद रहेंगे। यह आयत कयामत तक हर मुसलमान को यह मार्गदर्शन देती रहेगी कि उसकी सामाजिक जिम्मेदारी क्या है।

  • आर्थिक न्याय का आधार: भविष्य में किसी भी इस्लामी आर्थिक व्यवस्था की नींव इसी आयत में बताए गए सिद्धांतों पर टिकी होगी।

  • अल्लाह के ज्ञान का स्मरण: "इन्नल्लाहा बिही अलीम" का सिद्धांत हर युग के मोमिन को यह याद दिलाता रहेगा कि उसका हर अच्छा कर्म अल्लाह के यहाँ दर्ज है और उसे उसका पूरा प्रतिफल मिलकर रहेगा।

निष्कर्ष: आयत 2:215 इस्लाम की सामाजिक और आर्थिक शिक्षाओं का एक मूलमंत्र है। यह हमें न केवल दान का महत्व सिखाती है, बल्कि उसे सही जगह और सही क्रम में खर्च करने का तरीका भी बताती है। यह व्यक्ति और समाज के बीच एक पवित्र बंधन बनाती है और यह सुनिश्चित करती है कि समाज का हर सदस्य सुरक्षित और सम्मानित जीवन जी सके। यह अतीत, वर्तमान और भविष्य के लिए एक स्थायी सामाजिक अनुबंध (Social Contract) है।