यहाँ कुरआन की दूसरी सूरह, अल-बक़ारह की तीसरी आयत (2:3) का पूर्ण विस्तृत व्याख्या हिंदी में प्रस्तुत है।
कुरआन 2:3 - "अल्लजीना यू'मिनूना बिल गैबि व युक़ीमूनास सलात व मिम्मा रज़क़नाहुम युन्फिक़ून" (الَّذِينَ يُؤْمِنُونَ بِالْغَيْبِ وَيُقِيمُونَ الصَّلَاةَ وَمِمَّا رَزَقْنَاهُمْ يُنفِقُونَ)
हिंदी अर्थ: "जो अदृश्य (ग़ैब) पर ईमान रखते हैं, नमाज़ कायम करते हैं और उस (रोज़ी) में से जो हमने उन्हें दी है, खर्च करते हैं।"
पिछली आयत (2:2) में अल्लाह ने "मुत्तक़ीन" (डर रखने वालों) के लिए कुरआन के मार्गदर्शन होने की बात कही थी। अब यह आयत और अगली आयत (2:4) उन "मुत्तक़ीन" लोगों के गुणों और विशेषताओं को विस्तार से बताती हैं। यह आयत "मुत्तक़ी" के तीन मौलिक गुणों का वर्णन करती है।
आइए, इस आयत को शब्द-दर-शशब्द और उसके गहन अर्थों में समझते हैं।
1. शब्दार्थ विश्लेषण (Word-by-Word Analysis)
अल्लजीना (Allazeena): जो लोग
यू'मिनूना (Yu'minoona): ईमान रखते हैं (विश्वास करते हैं)
बिल ग़ैबि (Bil-Ghaybi): अदृश्य पर, ग़ैब पर
व युक़ीमूना (Wa Yuqeemoona): और कायम करते हैं
अस-सलात (As-Salaata): नमाज़ (प्रार्थना)
व मिम्मा (Wa mimma): और उसमें से
रज़क़नाहुम (Razaqnaahum): हमने उन्हें रोज़ी दी (जीविका दी)
युन्फिक़ून (Yunfiqoon): वे खर्च करते हैं (दान करते हैं)
2. गहन अर्थ और संदेश (In-depth Meaning & Message)
यह आयत "मुत्तक़ीन" के तीन स्तंभों का वर्णन करती है:
1. ग़ैब पर ईमान (Belief in the Unseen - इमान बिल-ग़ैब)
ग़ैब (Ghayb) क्या है? ग़ैब का अर्थ है वह सब कुछ जो हमारी पाँचों इंद्रियों (देख, सुन, सूंघ, स्वाद, स्पर्श) की पहुँच से परे है और जिसे केवल अल्लाह के बताने से ही जाना जा सकता है।
ग़ैब में क्या-क्या शामिल है? इसमें शामिल है:
अल्लाह: हम अल्लाह को सीधे नहीं देख सकते, लेकिन उसके अस्तित्व और गुणों पर ईमान रखते हैं।
फ़रिश्ते: उनके अस्तित्व पर ईमान।
आख़िरत (परलोक): मृत्यु के बाद का जीवन, क़यामत, जन्नत, जहन्नम।
भाग्य: अल्लाह का पूर्वज्ञान और हर चीज़ का लिखा जाना (तक़दीर)।
महत्व: यह एक मोमिन की सबसे बड़ी परीक्षा है। ग़ैब पर ईमान ही "ईमान" की असली परिभाषा है। यह तर्क और भौतिकवाद से ऊपर उठकर अल्लाह और उसके पैगंबर पर पूर्ण विश्वास की माँग करता है।
2. नमाज़ की स्थापना (Establishing the Prayer - इक़ामतुस-सलात)
"कायम करते हैं" का अर्थ: यहाँ सिर्फ "पढ़ते हैं" नहीं, बल्कि "कायम करते हैं" कहा गया है। इसका गहरा अर्थ है:
नियमितता: समय पर, लगातार और बिना रुके नमाज़ पढ़ना।
पूर्णता: उसके सभी रुक्न (स्तंभों) और शर्तों का पालन करते हुए पूरी तरह से अदा करना।
आत्मिक उपस्थिति: दिल और दिमाग को लगाकर, ख़ुशू-ख़ुज़ू (विनम्रता) के साथ पढ़ना।
जीवन में लागू करना: नमाज़ से मिले मार्गदर्शन को अपने दैनिक जीवन, व्यवहार और चरित्र में झलकना।
महत्व: नमाज़ ईमान और कुफ्र के बीच की रेखा है। यह अल्लाह और बंदे के बीच सीधा संबंध है जो इंसान को हर गलत काम से रोकती है।
3. अल्लाह के दिए से खर्च करना (Spending from what Allah has provided - इन्फ़ाक)
"उसमें से" का अर्थ: "मिम्मा" (उसमें से) शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। इसका मतलब है कि व्यक्ति अपनी संपूर्ण संपत्ति नहीं, बल्कि उसमें से एक हिस्सा खर्च करता है। इस्लाम संपत्ति के अधिकार का सम्मान करता है और उसे बर्बाद करने से मना करता है।
"हमने दी है" का अर्थ: "रज़क़नाहुम" (हमने उन्हें रोज़ी दी) शब्द यह एहसास दिलाता है कि धन-दौलत का असली मालिक अल्लाह है और इंसान तो केवल एक संरक्षक (Trustee) है। इससे अहंकार और कंजूसी दूर होती है।
खर्च किस पर और क्यों? इस खर्च में ज़कात (अनिवार्य दान) और सदक़ा (ऐच्छिक दान) दोनों शामिल हैं। यह खर्च माता-पिता, रिश्तेदारों, अनाथों, ज़रूरतमंदों और मुसाफिरों पर किया जाता है।
महत्व: यह गुण मनुष्य के अंदर से कंजूसी और लालच को दूर करके उदारता और परोपकार की भावना पैदा करता है। यह समाज से गरीबी दूर करने और आर्थिक न्याय स्थापित करने का एक शक्तिशाली साधन है।
3. तीनों गुणों का आपसी संबंध (The Interconnection of the Three Qualities)
ये तीनों गुण एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं और एक "मुत्तक़ी" का संपूर्ण चरित्र बनाते हैं:
ग़ैब पर ईमान → आंतरिक आधार: यह आस्था और विश्वास का आधार है। यही वह जड़ है जिससे अच्छे कर्म फूटते हैं।
नमाज़ की स्थापना → अल्लाह के साथ संबंध: यह उस आस्था का व्यक्तिगत और सीधा व्यावहारिक प्रमाण है। यह इंसान और उसके पालनहार के बीच का सीधा तार है।
खर्च करना → बंदों के साथ संबंध: यह उस आस्था का सामाजिक और आर्थिक प्रमाण है। यह दर्शाता है कि इंसान का ईमान उसे समाज के प्रति जिम्मेदार और दयालु बनाता है।
4. व्यावहारिक जीवन में महत्व (Practical Importance in Daily Life)
एक मोमिन का आदर्श: यह आयत हर मुसलमान के सामने एक स्पष्ट आदर्श प्रस्तुत करती है। वह स्वयं से पूछ सकता है: "क्या मेरा ग़ैब पर पक्का ईमान है? क्या मैं नमाज़ को उसके सभी नियमों के साथ कायम कर रहा हूँ? क्या मैं अल्लाह के दिए हुए में से दूसरों की मदद के लिए खर्च कर रहा हूँ?"
संतुलित जीवन शैली: यह आयत सिखाती है कि एक सच्चा मोमिन केवल रूहानियत (आध्यात्मिकता) में ही नहीं, बल्कि दुनियावी जिम्मेदारियों (सामाजिक और आर्थिक) में भी सक्रिय रहता है। उसका ईमान उसे एक संतुलित और सक्रिय जीवन जीने की प्रेरणा देता है।
निष्कर्ष (Conclusion)
कुरआन की आयत 2:3 "मुत्तक़ीन" की पहचान कराती है। यह बताती है कि सच्चा "तक़्वा" सिर्फ डर भर नहीं है, बल्कि यह एक सक्रिय और सकारात्मक जीवन पद्धति है जो तीन स्तंभों पर टिकी है: आस्था (ग़ैब पर ईमान), इबादत (नमाज़), और सेवा (खर्च)। यह आयत हर मुसलमान को अपने ईमान और अमल को मजबूत करने का एक ठोस रोडमैप प्रदान करती है।