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कुरआन की आयत 2:55 (सूरह अल-बक़ारह) का पूर्ण विस्तृत विवरण

 

1. पूरी आयत अरबी में:

وَإِذْ قُلْتُمْ يَا مُوسَىٰ لَن نُّؤْمِنَ لَكَ حَتَّىٰ نَرَى اللَّهَ جَهْرَةً فَأَخَذَتْكُمُ الصَّاعِقَةُ وَأَنتُمْ تَنظُرُونَ


2. अरबी शब्दों के अर्थ (Word-to-Word Meaning):

  • وَإِذْ: और (वह समय) याद करो जब

  • قُلْتُمْ: तुमने कहा

  • يَا مُوسَىٰ: हे मूसा!

  • لَن نُّؤْمِنَ: हम कदापि ईमान नहीं लाएंगे

  • لَكَ: तुमपर

  • حَتَّىٰ: जब तक कि

  • نَرَى: हम देख न लें

  • اللَّهَ: अल्लाह को

  • جَهْرَةً: स्पष्ट रूप से (आँखों के सामने)

  • فَأَخَذَتْكُم: तो पकड़ लिया तुम्हें

  • الصَّاعِقَةُ: बिजली (आकाशीय प्रकोप) ने

  • وَأَنتُمْ: और तुम

  • تَنظُرُونَ: देख रहे थे


3. पूर्ण विवरण (Full Explanation)

संदर्भ (Context):

यह आयत बनी इस्राईल की एक और विद्रोही और अविश्वासपूर्ण मांग का वर्णन करती है। यह घटना संभवतः तब की है जब हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) कोह-ए-तूर से तौरात लेकर लौटे थे और उन्होंने अपनी कौम को अल्लाह के आदेश सुनाए। अपनी अकृतज्ञता और हठधर्मिता में, बनी इस्राईल ने ईमान लाने के लिए एक असंभव और अभद्र शर्त रख दी।

आयत के भागों का विश्लेषण:

भाग 1: "और (वह समय) याद करो जब तुमने कहा: 'हे मूसा! हम तुमपर कदापि ईमान नहीं लाएंगे...'"

  • अविश्वास की चरम सीमा: "लन नु'मिन" (हम कदापि ईमान नहीं लाएंगे) एक बहुत ही दृढ़ और हठपूर्ण इनकार है। यह दर्शाता है कि उन्होंने पहले से ही ईमान न लाने का मन बना लिया था और सिर्फ एक बहाना ढूंढ रहे थे।

  • "तुमपर ईमान": इसका मतलब है "तुम्हारी पैगंबरी पर ईमान" या "तुम जो अल्लाह का संदेश लेकर आए हो, उस पर ईमान।"

भाग 2: "'...जब तक कि हम अल्लाह को स्पष्ट रूप से (अपनी आँखों से) न देख लें।'"

  • अनुचित मांग: यह मांग अल्लाह की महानता और प्रकृति के विरुद्ध थी। दुनिया में कोई भी सीधे अल्लाह को देखने की शक्ति नहीं रखता। ईमान का आधार "ग़ैब" (अदृश्य) पर विश्वास है, न कि प्रत्यक्ष दर्शन पर।

  • ईमान की शर्तें: ईमान लाने के लिए इस तरह की शर्तें लगाना स्वयं अविश्वास की निशानी है। एक सच्चा मोमिन पैगंबर की बात को बिना शर्त मान लेता है।

भाग 3: "तो तुम्हें बिजली (आकाशीय प्रकोप) ने आ पकड़ा, और तुम (यह सब) देख रहे थे।"

  • तत्काल दंड: उनकी इस धृष्टता और अविश्वास का तुरंत जवाब दिया गया। "साइक़ा" (बिजली) एक अचानक आने वाला प्रकोप था जिसने उन्हें अपनी चपेट में ले लिया।

  • "तुम देख रहे थे": यह वाक्यांश दर्शाता है कि यह दंड अचानक और उनकी आँखों के सामने आया। वे इसकी भयावहता को समझने में असमर्थ रहे। यह इस बात का भी प्रतीक है कि वे "देखने" की अपनी मांग के परिणाम स्वरूप एक भयानक चीज "देख" बैठे।


4. सबक (Lessons)

  1. ईमान की शर्तें नहीं होतीं: अल्लाह और उसके पैगंबर पर ईमान बिना शर्त होना चाहिए। ईमान लाने के लिए दलीलों या प्रत्यक्ष प्रमाण की मांग करना अविश्वास की निशानी है।

  2. अल्लाह की महानता का सम्मान: अल्लाह की महानता और प्रकृति के विरुद्ध मांगें करना एक बड़ा पाप है। इंसान की सीमित समझ अल्लाह की असीमित सत्ता को नहीं माप सकती।

  3. अकृतज्ञता का परिणाम: अल्लाह के एहसानों और चमत्कारों के बावजूद अविश्वास और हठधर्मिता का परिणाम बहुत भयानक हो सकता है।

  4. ईमान का आधार: ईमान का आधार "ग़ैब" (अदृश्य) पर विश्वास है। अगर सब कुछ सामने दिखाई देने लगे, तो फिर ईमान का कोई मूल्य नहीं रह जाता।


5. प्रासंगिकता: अतीत, वर्तमान और भविष्य (Relevancy: Past, Present & Future)

अतीत (Past) में प्रासंगिकता:

  • यह आयत बनी इस्राईल की जिद्दी प्रकृति को उजागर कर रही थी, ताकि वे अपनी गलतियों से सीखें और नए पैगंबर (मुहम्मद सल्ल.) पर सीधे ईमान ले आएं।

  • यह मक्का के काफिरों के लिए एक चेतावनी थी जो पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) से चमत्कारों की मांग कर रहे थे।

वर्तमान (Present) में प्रासंगिकता:

  • आधुनिक "देखने" की मांग: आज का इंसान भी विज्ञान और तर्क के नाम पर यही मांग करता है। लोग कहते हैं, "हम अल्लाह पर तब ईमान लाएंगे जब उसे देख लेंगे," या "जन्नत-दोज़ख को साबित करके दिखाओ।" यह आयत ठीक इसी मानसिकता की निंदा करती है।

  • ईमान में कमजोरी: आज कई मुसलमानों का ईमान भी दिखावे और शर्तों पर टिका है। वे कहते हैं, "अगर अल्लाह ने मेरी यह दुआ कबूल कर ली तो मैं नमाज़ पढ़ने लगूंगा।" यह ईमान के साथ सौदेबाजी है।

  • वैज्ञानिक सोच की सीमा: यह आयत हमें याद दिलाती है कि विज्ञान और तर्क की भी एक सीमा है। कुछ सत्य (जैसे अल्लाह का अस्तित्व, आखिरत) केवल विश्वास और दिव्य मार्गदर्शन के माध्यम से ही जाने जा सकते हैं।

भविष्य (Future) में प्रासंगिकता:

  • जब तक दुनिया रहेगी, इंसान की यह प्रवृत्ति बनी रहेगी कि वह अदृश्य सत्यों को केवल तभी माने जब उसे भौतिक प्रमाण मिल जाए। यह आयत भविष्य की हर पीढ़ी को यह चेतावनी देती रहेगी कि ईमान का मार्ग विश्वास और आत्मसमर्पण का मार्ग है, न कि प्रत्यक्ष प्रमाणों का।

  • यह आयत हमेशा यह संदेश देगी कि अल्लाह की महानता के सामने विनम्रता ही एक मोमिन की पहचान है, और उसके आदेशों के सामने "क्यों" और "कैसे" पूछने का अधिकार केवल उसी की इच्छा पर निर्भर करता है।