Read Quran translation in Hindi with verse-by-verse meaning and time-relevant explanations for deeper understanding.

कुरआन 2:6 - "इन्नल्लजीना कफरू सवाउन अलैहिम अ अनज़ारतहुम अ लम तुनज़िरहुम ला यू'मिनून" (إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا سَوَاءٌ عَلَيْهِمْ أَأَنذَرْتَهُمْ أَمْ لَمْ تُنذِرْهُمْ لَا يُؤْمِنُونَ)

यहाँ कुरआन की दूसरी सूरह, अल-बक़ारह की छठवीं आयत (2:6) का पूर्ण विस्तृत व्याख्या हिंदी में प्रस्तुत है।


कुरआन 2:6 - "इन्नल्लजीना कफरू सवाउन अलैहिम अ अनज़ारतहुम अ लम तुनज़िरहुम ला यू'मिनून" (إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا سَوَاءٌ عَلَيْهِمْ أَأَنذَرْتَهُمْ أَمْ لَمْ تُنذِرْهُمْ لَا يُؤْمِنُونَ)

हिंदी अर्थ: "निश्चय ही जिन लोगों ने इनकार किया है, उनके लिए समान है, चाहे आप उन्हें सचेत करें या न करें, वे ईमान नहीं लाएँगे।"

यह आयत एक महत्वपूर्ण मोड़ है। आयत 2 से 5 तक अल्लाह ने उन लोगों का वर्णन किया जो मार्गदर्शन को स्वीकार करते हैं और सफल होते हैं ("मुत्तक़ीन")। अब आयत 6 और 7 में वह उन लोगों का वर्णन शुरू करता है जो मार्गदर्शन को स्पष्ट होने के बाद भी ठुकरा देते हैं। यह मानव स्वभाव के दो अलग-अलग पहलुओं को दर्शाता है।

आइए, इस आयत को शब्द-दर-शब्द और उसके गहन अर्थों में समझते हैं।


1. शब्दार्थ विश्लेषण (Word-by-Word Analysis)

  • इन्ना (Inna): निश्चय ही, बेशक (Indeed)। यह शब्द इस बात पर जोर देता है कि जो कुछ कहा जा रहा है वह एक सुनिश्चित सत्य है।

  • अल्लजीना (Allazeena): जो लोग (Those who)

  • कफरू (Kafaroo): इनकार कर दिया, कुफ्र किया (They disbelieved)। "कुफ्र" का अर्थ है सत्य को ढक देना, अस्वीकार करना या अकृतज्ञता दिखाना।

  • सवाउन (Sawaaun): समान, बराबर (It is same)

  • अलैहिम (Alaihim): उन पर (Upon them)

  • अ अनज़ारतहुम (A anzaratahum): क्या आपने उन्हें चेतावनी दी? (Did you warn them?)। "इनज़ार" का अर्थ है खतरे से आगाह करना, डराना।

  • अम (Am): या (Or)

  • लम तुनज़िरहुम (Lam tunzirhum): आपने उन्हें चेतावनी नहीं दी? (You did not warn them?)

  • ला यू'minoon (La yu'minoon): वे ईमान नहीं लाएँगे (They will not believe)


2. गहन अर्थ और संदेश (In-depth Meaning & Message)

इस आयत का अर्थ समझने के लिए इसे दो स्तरों पर देखना जरूरी है:

1. पैगंबर (सल्ल.) को दिलासा और शिक्षा (Consolation and Lesson for the Prophet):

  • जब पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) लोगों को इस्लाम का संदेश देते थे, तो कुछ लोग जमकर विरोध करते थे और हर तरह से उन्हें हतोत्साहित करते थे। ऐसे में कभी-कभी पैगंबर (सल्ल.) को दुख होता था कि उनकी कोशिशें व्यर्थ जा रही हैं।

  • यह आयत उन्हें (और सभी दावत देने वालों को) दिलासा देती है कि आपकी जिम्मेदारी सिर्फ संदेश पहुँचाना है, लोगों के दिलों में ईमान लाना नहीं। अगर कोई सत्य को जानने-समझने के बाद भी स्वेच्छा से इनकार करने पर आमादा है, तो उसके इनकार के लिए आप जिम्मेदार नहीं हैं।

  • यह शिक्षा देती है कि एक दाइ (दावत देने वाले) का काम नतीजे की चिंता किए बिना, अपना फर्ज निभाते रहना है।

2. काफिरों की मानसिक स्थिति का वर्णन (Description of the Disbelievers' Mentality):

  • आयत उन काफिरों की मनोदशा को दर्शाती है जिन्होंने पूर्वाग्रह (Prejudice), हठ (Stubbornness) और अहंकार (Arrogance) को अपना लिया है।

  • उनके लिए चेतावनी देना या न देना "समान" है। क्यों? क्योंकि उनका निर्णय पहले ही हो चुका है। उनकी बंद आँखें देखना नहीं चाहतीं और उनके बंद कान सुनना नहीं चाहते। वह सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं हैं।

  • यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। जब कोई व्यक्ति किसी बात के खिलाफ पूर्वनिर्धारित धारणा बना लेता है, तो तर्क और सबूत उस पर कोई प्रभाव नहीं डालते।


3. महत्वपूर्ण बारीकियाँ (Important Nuances)

इस आयत को समझते समय दो बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए:

1. यह सामान्यीकरण नहीं है (It is not a Generalization):

  • यह आयत हर गैर-मुसलमान के बारे में नहीं है। यह विशेष रूप से उन लोगों के बारे में है जिन तक सत्य पहुँच चुका है, जिन्होंने उसे समझ लिया है, लेकिन फिर भी हठ और द्वेष के कारण उसे ठुकरा देते हैं। ऐसे लोग हर समाज और हर काल में पाए जाते हैं।

  • कुरआन में दूसरी जगहों पर उन लोगों के लिए आशा की किरण दिखाई गई है जो तलाश में हैं या जिन तक सही जानकारी नहीं पहुँची है।

2. चेतावनी का उद्देश्य (The Purpose of Warning):

  • आयत यह नहीं कहती कि चेतावनी देना बेकार है। बल्कि, यह उस विशेष वर्ग के बारे में बता रही है जो चेतावनी के प्रभाव से बाहर है।

  • चेतावनी देने का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य "हुज्जत तमाम होना" (Argument being established) है। यानी, क़यामत के दिन ये लोग यह नहीं कह सकेंगे कि "हमें कोई चेतावनी देने वाला नहीं आया।" अब चूंकि चेतावनी दे दी गई है, इसलिए अल्लाह के यहाँ उनका कोई बहाना नहीं रह जाएगा।


4. व्यावहारिक जीवन में महत्व (Practical Importance in Daily Life)

  • धैर्य का पाठ: यह आयत हर उस व्यक्ति को सिखाती है जो लोगों को अच्छाई की तरफ बुलाता है (चाहे वह धर्म का दाइ हो या सामाजिक कार्यकर्ता) कि आपको हर किसी को मनाने की जिम्मेदारी नहीं है। आपका काम स्पष्टता और ईमानदारी से सत्य को पहुँचाना है। नतीजा अल्लाह पर छोड़ देना चाहिए।

  • आत्म-जागरूकता: यह आयत हमें स्वयं के लिए एक चेतावनी भी है। हमें अपने दिलों का जायजा लेना चाहिए कि कहीं हम भी किसी सच्चाई के मामले में उन लोगों जैसे तो नहीं हो गए हैं जो सुनने-समझने के बाद भी हठ के कारण उसे स्वीकार नहीं करते।


निष्कर्ष (Conclusion)

कुरआन की आयत 2:6 मानव स्वभाव के एक कठोर सत्य को उजागर करती है। यह उन लोगों की मानसिक जड़ता को दर्शाती है जो सत्य के प्रति अपनी आँखें और कान बंद कर चुके हैं। यह आयत एक तरफ तो पैगंबर (सल्ल.) और सभी सत्य के पैरोकारों को उनकी जिम्मेदारी के बोझ से मुक्त करके धैर्य और संतुष्टि का पाठ पढ़ाती है, तो दूसरी तरफ हर इंसान को यह चेतावनी देती है कि वह सत्य को स्वीकार करने के अवसर को हठ और अहंकार के कारण गँवा न दे। यह आयत "मुत्तक़ीन" (सफल लोग) और "काफिरीन" (असफल लोग) के बीच एक स्पष्ट रेखा खींचती है।