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कुरआन 2:7 - "ख़तमल्लाहु अला कुलूबिहिम व अला सम्हिहिम व अला अब्सारिहिम ग़िशावतुव व व लाहुम अज़ाबुन अज़ीम" (خَتَمَ اللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمْ وَعَلَىٰ سَمْعِهِمْ وَعَلَىٰ أَبْصَارِهِمْ غِشَاوَةٌ وَلَهُمْ عَذَابٌ عَظِيمٌ)

यहाँ कुरआन की दूसरी सूरह, अल-बक़ारह की सातवीं आयत (2:7) का पूर्ण विस्तृत व्याख्या हिंदी में प्रस्तुत है।


कुरआन 2:7 - "ख़तमल्लाहु अला कुलूबिहिम व अला सम्हिहिम व अला अब्सारिहिम ग़िशावतुव व व लाहुम अज़ाबुन अज़ीम" (خَتَمَ اللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمْ وَعَلَىٰ سَمْعِهِمْ وَعَلَىٰ أَبْصَارِهِمْ غِشَاوَةٌ وَلَهُمْ عَذَابٌ عَظِيمٌ)

हिंदी अर्थ: "अल्लाह ने उनके दिलों और उनके कानों पर मुहर लगा दी है और उनकी आँखों पर पर्दा पड़ गया है, और उनके लिए भारी यातना है।"

यह आयत पिछली आयत (2:6) में वर्णित उन काफिरों (इनकार करने वालों) की स्थिति का कारण और परिणाम बताती है, जिनके लिए चेतावनी बेअसर है। यह एक गहन आध्यात्मिक सत्य को उजागर करती है।

आइए, इस आयत को शब्द-दर-शब्द और उसके गहन अर्थों में समझते हैं।


1. शब्दार्थ विश्लेषण (Word-by-Word Analysis)

  • ख़तमल्लाहु (Khatamallah): "ख़तम" का अर्थ है मुहर लगाना, सील कर देना। "अल्लाहु" यानी अल्लाह ने। इस प्रकार, "अल्लाह ने मुहर लगा दी"

  • अला कुलूबिहिम (Ala quloobihim): "उनके दिलों पर"। यहाँ "कुलूब" (दिल) से तात्पर्य समझ, बुद्धि और सत्य को ग्रहण करने की क्षमता से है।

  • व अला सम्हिहिम (Wa ala sam'ihim): "और उनके सुनने पर"। यानी उनके कानों पर।

  • व अला अब्सारिहिम (Wa ala absarihim): "और उनकी आँखों पर"

  • ग़िशावतुन (Gishawatun): "एक पर्दा (पड़ गया है)"। यह एक ऐसा आवरण है जो देखने में बाधा डालता है।

  • व लहुम (Wa lahum): "और उनके लिए है"

  • अज़ाबुन अज़ीम (Azaabun Azeem): "एक भारी यातना"


2. गहन अर्थ और संदेश (In-depth Meaning & Message)

यह आयत उन काफिरों की दयनीय स्थिति का वर्णन करती है जो जानबूझकर सत्य को ठुकराते हैं। इसके तीन मुख्य भाग हैं:

1. दिलों पर मुहर (Seal on the Hearts - ख़तम अला कुलूबिहिम)

  • यह आयत का सबसे महत्वपूर्ण भाग है। "दिल पर मुहर लगना" एक प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है।

  • इसका अर्थ यह नहीं है कि अल्लाह ने शुरू से ही उनके दिलों पर मुहर लगा दी थी और उन्हें मजबूर कर दिया था। बल्कि, इसका अर्थ है कि जब एक इंसान बार-बार सत्य को सुनकर, समझकर और फिर भी जानबूझकर उसका इनकार करता है, तो उसका दिल सत्य के प्रति संवेदनशील होना बंद कर देता है।

  • यह एक प्राकृतिक और आध्यात्मिक नियम है। लगातार पाप और अवज्ञा करने से इंसान का दिल कठोर हो जाता है, ठीक वैसे ही जैसे लगातार गंदगी डालने से कोई झरना सूख जाता है। अल्लाह का "मुहर लगाना" उसकी इस नियम-व्यवस्था का हिस्सा है। इंसान ने स्वयं अपने कर्मों से अपने दिल को सत्य के लिए बंद कर लिया, और अल्लाह की व्यवस्था ने उसे सील कर दिया।

2. कानों और आँखों पर पर्दा (A Covering on their Ears and Eyes - ग़िशावतुन)

  • जिस तरह दिल समझने का केंद्र है, उसी तरह कान और आँखें जानकारी प्राप्त करने के मुख्य साधन हैं।

  • कानों पर पर्दा: इसका मतलब है कि वे सत्य की बातें सुनते तो हैं, लेकिन उन पर गौर नहीं करते। उनके कान सुनने के लिए तो खुले हैं, लेकिन सुनकर समझने और स्वीकार करने की क्षमता नहीं रह गई है।

  • आँखों पर पर्दा: इसका मतलब है कि वे अल्लाह की निशानियों (सृष्टि, प्रकृति, चमत्कार) को देखते तो हैं, लेकिन उनमें छिपे सत्य को पहचान नहीं पाते। उनकी देखने की शक्ति केवल बाहरी दुनिया तक सीमित रह गई है, आंतरिक अर्थ तक नहीं पहुँच पाती।

3. भारी यातना का प्रतिफल (The Consequence: A Great Punishment - व लहुम अज़ाबुन अज़ीम)

  • यह आयत का अंतिम और दुखद परिणाम है। जो लोग अपनी जानबूझकर की गई अवज्ञा के कारण सत्य को ग्रहण करने की क्षमता ही खो बैठते हैं, उनका अंतिम परिणाम आखिरत (परलोक) में एक "भारी यातना" है।

  • यह यातना केवल शारीरिक ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और मानसिक भी होगी - सच्चाई को जानने का अवसर गँवा देने का एक गहरा पश्चाताप और दुख।


3. महत्वपूर्ण बारीकियाँ (Important Nuances)

  • मुहर लगने का कारण: यह आयत कारण और प्रभाव के नियम को दर्शाती है। मुहर लगना पहला कदम नहीं, बल्कि अंतिम परिणाम है। पहले इंसान अपनी स्वतंत्र इच्छा से कुफ्र करता है, और उसके बाद यह स्थिति उत्पन्न होती है।

  • अवसर की समाप्ति: यह आयत उन लोगों के बारे में है जिन्होंने सत्य को पहचानने के पूरे अवसरों का दुरुपयोग कर दिया है। यह उन लोगों के बारे में नहीं है जो अभी तलाश में हैं या भटके हुए हैं। ऐसे लोगों के लिए कुरआन में आशा की किरण है।


4. व्यावहारिक जीवन में महत्व (Practical Importance in Daily Life)

  • एक चेतावनी: यह आयत हर इंसान के लिए एक सशक्त चेतावनी है। यह हमें सिखाती है कि हमें अपने दिल को जीवित और कोमल रखना चाहिए। लगातार गुनाहों, हठ और अहंकार से हमारा दिल सख्त हो सकता है और सत्य के प्रति अनुत्तरदायी हो सकता है।

  • दुआ की प्रेरणा: एक मोमिन हमेशा अल्लाह से दुआ करता है: "रब्बना ला तुज़िग़ कुलूबना बअदा इज़ हदैतना" (हे हमारे पालनहार! हमें सीधा मार्ग दिखाने के बाद हमारे दिलों को टेढ़ा न कर।) - (सूरह आले इमरान, 3:8)। यह दुआ सीधे तौर पर इस आयत में बताई गई स्थिति से बचने की प्रार्थना है।

  • सत्य के प्रति खुले रहना: यह आयत हमें सिखाती है कि हमें हमेशा सत्य को सुनने, समझने और स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए, चाहे वह हमारी पूर्वधारणाओं के विपरीत क्यों न हो।


निष्कर्ष (Conclusion)

कुरआन की आयत 2:7 मानव स्वतंत्र इच्छा और दैवीय न्याय के बीच के गहन संबंध को दर्शाती है। यह बताती है कि इंसान के बुरे चुनाव और जानबूझकर की गई अवज्ञा का अंतिम परिणाम उसकी आध्यात्मिक मृत्यु (दिल के सख्त होने) और फिर एक भयानक दंड के रूप में होता है। यह आयत हमें अपने दिल, कान और आँखों की सुरक्षा के प्रति सचेत करती है और हमें हमेशा सत्य के लिए खुला रहने की प्रेरणा देती है।