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कुरआन की आयत 2:62 (सूरह अल-बक़ारह) का पूर्ण विस्तृत विवरण

 

1. पूरी आयत अरबी में:

إِنَّ الَّذِينَ آمَنُوا وَالَّذِينَ هَادُوا وَالنَّصَارَىٰ وَالصَّابِئِينَ مَنْ آمَنَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ وَعَمِلَ صَالِحًا فَلَهُمْ أَجْرُهُمْ عِندَ رَبِّهِمْ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُونَ


2. अरबी शब्दों के अर्थ (Word-to-Word Meaning):

  • إِنَّ: निश्चय ही

  • الَّذِينَ: जो लोग

  • آمَنُوا: ईमान लाए

  • وَالَّذِينَ: और जो लोग

  • هَادُوا: यहूदी हुए

  • وَالنَّصَارَىٰ: और ईसाई

  • وَالصَّابِئِينَ: और साबेई (एक धार्मिक समुदाय)

  • مَنْ: जो कोई

  • آمَنَ: ईमान लाया

  • بِاللَّهِ: अल्लाह पर

  • وَالْيَوْمِ: और दिन पर

  • الْآخِرِ: आखिरत के

  • وَعَمِلَ: और अमल किया

  • صَالِحًا: नेक (अच्छे काम)

  • فَلَهُمْ: तो उनके लिए है

  • أَجْرُهُمْ: उनका बदला

  • عِند: के पास

  • رَبِّهِمْ: उनके पालनहार के

  • وَلَا: और नहीं

  • خَوْفٌ: कोई डर

  • عَلَيْهِمْ: उन पर

  • وَلَا: और न

  • هُمْ: वे

  • يَحْزَنُونَ: उदास होंगे


3. पूर्ण विवरण (Full Explanation)

संदर्भ (Context):

यह आयत पिछली आयतों में बनी इस्राईल की आलोचना के बाद एक बहुत ही महत्वपूर्ण और सार्वभौमिक सिद्धांत स्थापित करती है। पिछली आयतों में यहूदियों की कमियों का जिक्र था, जिससे यह भ्रम पैदा हो सकता था कि केवल एक विशेष समुदाय ही बच सकता है। इस आयत द्वारा अल्लाह यह स्पष्ट करता है कि उद्धार किसी विशेष जाति, नस्ल या नाम पर नहीं, बल्कि सही ईमान और अच्छे कर्म पर निर्भर करता है।

आयत के भागों का विश्लेषण:

भाग 1: "निश्चय ही जो लोग ईमान लाए और जो यहूदी हुए और ईसाई और साबेई..."

  • विभिन्न समुदायों का उल्लेख: अल्लाह उस समय के प्रमुख एकेश्वरवादी समुदायों का नाम लेता है:

    • "अल्लज़ीना आमनू": वे लोग जो पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) पर ईमान लाए।

    • "अल्लज़ीना हादू": यहूदी।

    • "वन-नसारा": ईसाई।

    • "वस-साबेईन": साबेई, एक प्राचीन एकेश्वरवादी समुदाय जो सितारों की पूजा करता था लेकिन बाद में एक ईश्वर में विश्वास करने लगा।

भाग 2: "...(उनमें से) जिस किसी ने अल्लाह और आखिरत के दिन पर ईमान लाया और नेक अमल किए..."

  • बचाव की शर्तें: अल्लाह उद्धार के लिए तीन स्पष्ट शर्तें रखता है:

    1. ईमान बिल्लाह: अल्लाह पर ईमान लाना। यहाँ अल्लाह से तात्पर्य एक अद्वितीय, सर्वशक्तिमान ईश्वर से है।

    2. ईमान बिल-यौमिल आखिर: आखिरत (प्रलय) के दिन पर विश्वास करना। यह विश्वास इंसान को उसके कर्मों के लिए जिम्मेदार ठहराता है।

    3. अमिलु सालेह: नेक अमल (अच्छे कर्म) करना। ईमान को व्यवहार में उतारना।

भाग 3: "...तो उनके लिए उनके पालनहार के पास उनका बदला (अज्र) है, और न तो उन पर कोई डर होगा और न ही वे उदास होंगे।"

  • वादा किया गया इनाम: जो कोई भी उपरोक्त शर्तों को पूरा करेगा, उसके लिए अल्लाह तीन चीजों का वादा करता है:

    1. अज्र (पुरस्कार): जन्नत और अल्लाह की रज़ामंदी।

    2. ला खौफुन अलैहिम (उन पर कोई डर नहीं): आखिरत की कठिनाइयों और जहन्नम के डर से मुक्ति।

    3. ला हुम यहज़नून (वे उदास नहीं होंगे): अतीत में छूटी हुई चीजों या किए गए पापों पर कोई पछतावा नहीं होगा।


4. सबक (Lessons)

  1. उद्धार का आधार: इस्लाम में उद्धार का आधार नस्ल, जाति या समुदाय का नाम नहीं, बल्कि सही आस्था और अच्छे कर्म हैं।

  2. सार्वभौमिक न्याय: अल्लाह का न्याय पूरी तरह से निष्पक्ष है। हर इंसान, चाहे वह किसी भी समुदाय से हो, अगर उसने सच्चा ईमान और अच्छे कर्म किए, तो उसे उसका पूरा बदला मिलेगा।

  3. ईमान और अमल का अटूट रिश्ता: ईमान और अमल एक-दूसरे के पूरक हैं। बिना अमल के ईमान अधूरा है और बिना ईमान के अमल का कोई मोल नहीं है।

  4. आशा का संदेश: यह आयत गैर-मुस्लिमों के लिए आशा का संदेश देती है कि अगर वे सच्चे दिल से अल्लाह और आखिरत पर ईमान रखते हैं और नेक कर्म करते हैं, तो अल्लाह की दया उन्हें भी घेर सकती है।


5. प्रासंगिकता: अतीत, वर्तमान और भविष्य (Relevancy: Past, Present & Future)

अतीत (Past) में प्रासंगिकता:

  • यह आयत पैगंबर (सल्ल.) के समय के यहूदियों और ईसाइयों के लिए एक चुनौती और आमंत्रण थी। यह दर्शाती थी कि केवल यहूदी या ईसाई होने से कोई बच जाने वाला नहीं है। बचाव के लिए पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) पर ईमान लाना जरूरी था, क्योंकि अब उनके अपने धर्मों में विकृति आ चुकी थी।

  • यह उन लोगों के लिए आशा थी जो पिछले धर्मों का पालन कर रहे थे और सच्चाई की तलाश में थे।

वर्तमान (Present) में प्रासंगिकता:

  • फिरकापरस्ती का इलाज: आज कई मुसलमान दूसरे मुसलमानों को छोटे-मोटे मतभेदों के आधार पर काफिर घोषित कर देते हैं। यह आयत हमें सिखाती है कि फैसला करना अल्लाह का काम है। हमारा काम सही ईमान और अच्छे कर्मों पर ध्यान देना है।

  • गैर-मुस्लिमों के साथ संबंध: यह आयत गैर-मुस्लिमों के प्रति सहिष्णुता और सम्मान का पाठ पढ़ाती है। हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि कोई गैर-मुस्लिम स्वर्ग में नहीं जाएगा। फैसला अल्लाह के हाथ में है।

  • व्यक्तिगत जिम्मेदारी: यह आयत हर इंसान से कहती है कि तुम्हारा उद्धार तुम्हारे अपने ईमान और अमल पर निर्भर है, तुम्हारे पिता या दादा के धर्म पर नहीं।

भविष्य (Future) में प्रासंगिकता:

  • यह आयत कयामत तक मानवजाति के लिए न्याय और उद्धार का एक सार्वभौमिक सिद्धांत स्थापित करती है। यह हमेशा प्रासंगिक रहेगी।

  • यह आयत भविष्य की हर पीढ़ी को यह संदेश देती रहेगी कि अल्लाह के यहाँ इन्सान की हैसियत उसके ईमान और अमल से तय होती है, उसकी पहचान या लेबल से नहीं।

  • यह हमेशा एकता, सहिष्णुता और व्यक्तिगत जिम्मेदारी का मार्गदर्शन करती रहेगी।

नोट: इस आयत की व्याख्या उस समय के यहूदियों और ईसाइयों के लिए थी, जिन्होंने पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) के आने से पहले सच्चे दिल से अपने धर्म का पालन किया। पैगंबर (सल्ल.) के आने के बाद, उद्धार की शर्त उन पर भी ईमान लाना है, जैसा कि कुरआन की अन्य आयतों (जैसे आले-इमरान 3:85) में स्पष्ट है। लेकिन इस आयत का मूल सिद्धांत - कि उद्धार ईमान और अमल पर है - हमेशा कायम रहेगा।