१. पूरी आयत अरबी में:
وَلَقَدْ آتَيْنَا مُوسَى الْكِتَابَ وَقَفَّيْنَا مِن بَعْدِهِ بِالرُّسُلِ وَآتَيْنَا عِيسَى ابْنَ مَرْيَمَ الْبَيِّنَاتِ وَأَيَّدْنَاهُ بِرُوحِ الْقُدُسِ أَفَكُلَّمَا جَاءَكُمْ رَسُولٌ بِمَا لَا تَهْوَى أَنفُسُكُمُ اسْتَكْبَرْتُمْ فَفَرِيقًا كَذَّبْتُمْ وَفَرِيقًا تَقْتُلُونَ
२. शब्द-दर-शब्द अर्थ (Arabic Words Meaning):
وَلَقَدْ: और बेशक, निश्चय ही।
آتَيْنَا: हमने दी।
مُوسَى: मूसा (अलैहिस्सलाम) को।
الْكِتَاب: किताब (तौरात)।
وَقَفَّيْنَا: और हमने पीछे किया, एक के बाद एक भेजा।
مِن بَعْدِهِ: उन (मूसा) के बाद।
بِالرُّسُل: पैगंबरों के साथ।
وَآتَيْنَا: और हमने दीं।
عِيسَى: ईसा (अलैहिस्सलाम) को।
ابْنَ مَرْيَم: मरयम के बेटे को।
الْبَيِّنَات: स्पष्ट निशानियाँ, मुजिज़े।
وَأَيَّدْنَاهُ: और हमने उनकी मदद की, ताकत दी।
بِرُوحِ الْقُدُس: रूहुल कुद्स (जिब्रील अलैहिस्सलाम) के साथ।
أَف: तो क्या।
كُلَّمَا: हर बार जब।
جَاءَكُمْ: तुम्हारे पास आया।
رَسُولٌ: एक पैगंबर।
بِمَا: उस (चीज़) के साथ।
لَا تَهْوَى: पसंद नहीं करते।
أَنفُسُكُمْ: तुम्हारी ज़ातें (तुम्हारा मन)।
اسْتَكْبَرْتُمْ: तुमने अहंकार किया, घमंड किया।
فَفَرِيقًا: तो एक समूह को।
كَذَّبْतُمْ: तुमने झुठलाया।
وَفَرِيقًا: और एक समूह को।
تَقْتُلُونَ: तुम मार डालते हो।
३. आयत का पूरा अर्थ (Full Explanation in Hindi):
इस आयत का पूरा अर्थ है: "और निश्चय ही हमने मूसा को किताब (तौरात) प्रदान की और उनके बाद (अन्य) पैगंबरों को एक के बाद एक भेजते रहे, और हमने मरयम के बेटे ईसा को स्पष्ट निशानियाँ (मुजिज़े) दीं और उनकी रूहुल कुद्स (जिब्रील फरिश्ते) के द्वारा सहायता की। तो क्या (यही तुम्हारा तरीका है कि) हर बार जब कोई पैगंबर तुम्हारे पास वह (संदेश) लेकर आया जो तुम्हारी इच्छाओं के अनुकूल नहीं था, तो तुमने अहंकार किया? फिर तुमने एक समूह (पैगंबरों) को तो झुठलाया और एक समूह (पैगंबरों) की हत्या कर डाली।"
गहन व्याख्या:
यह आयत बनी इस्राईल के इतिहास में अल्लाह के अनगिनत एहसानात (उपकारों) को गिनाती है और फिर उनकी कृतघ्नता और जिद्द पर सवाल उठाती है।
अल्लाह के एहसान:
मूसा (अलैहिस्सलाम) को किताब: सबसे पहला बड़ा एहसान, तौरात जैसी महान किताब का दिया जाना।
पैगंबरों का अनवरत सिलसिला: मूसा के बाद भी अल्लाह ने उन्हें छोड़ा नहीं, बल्कि लगातार पैगंबर भेजकर उन्हें सही रास्ता दिखाते रहे।
ईसा (अलैहिस्सलाम) को मुजिज़े: ईसा मसीह को मरे हुओं को जिलाने, अन्धों को आँखें देने जैसे स्पष्ट मुजिज़े दिए।
जिब्रील द्वारा सहायता: ईसा मसीह की जिब्रील (रूहुल कुद्स) के द्वारा मजबूती से मदद की गई।
बनी इस्राईल की प्रतिक्रिया और अपराध:
इतने एहसानों के बावजूद, जब भी कोई पैगंबर उनके सामने सच्चाई लेकर आया, जो उनकी हवा-ए-नफ्स (इच्छाओं) और बनाए हुए झूठे विश्वासों के खिलाफ था, तो उन्होंने:
अहंकार (इस्तकबार) किया: उन्होंने सोचा कि हम तो चुने हुए लोग हैं, यह पैगंबर हमें क्या सिखाएगा।
पैगंबरों को झुठलाया (तकज़ीब): कुछ पैगंबरों को उन्होंने सिर्फ झूठा कहकर खारिज कर दिया।
पैगंबरों की हत्या की (कत्ल): कुछ पैगंबरों की हत्या तक कर डाली। यह उनकी जिद और सत्य के प्रति घृणा की चरम सीमा थी।
आयत का अंत एक तीखे सवाल के साथ होता है जो उनकी इस निंदनीय प्रवृत्ति की ओर इशारा करता है।
४. शिक्षा और सबक (Lesson and Moral):
सत्य को स्वीकार करना: इंसान को सत्य को उसकी स्रोत (पैगंबर या किताब) से नहीं, बल्कि उसकी सच्चाई से स्वीकार करना चाहिए। सिर्फ इसलिए कि सच्चाई हमारी इच्छाओं के अनुकूल नहीं है, उसे झुठलाना बुद्धिमानी नहीं है।
अहंकार सत्य का दुश्मन: सबसे बड़ी बाधा जो इंसान को सच्चाई स्वीकार करने से रोकती है, वह है अहंकार (घमंड)। जातीय, धार्मिक या बौद्धिक अहंकार इंसान को अंधा बना देता है।
अल्लाह के एहसानों को याद रखना: हमें हमेशा अल्लाह की दी हुई नेमतों (पैगंबर, किताब, मार्गदर्शन) को याद रखना चाहिए और कृतघ्न बनना चाहिए, न कि इनकार करने वाला।
हिंसा का मार्ग न अपनाना: धार्मिक मतभेदों को हिंसा और हत्या से सुलझाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।
५. अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):
अतीत (Past) के संदर्भ में:
यह आयत सीधे तौर पर बनी इस्राईल के इतिहास को दर्शाती है, जहाँ उन्होंने कई पैगंबरों को झुठलाया और कुछ की हत्या भी की।
यह पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय के यहूदियों और ईसाइयों के लिए एक चेतावनी थी कि वे अपने पूर्वजों की गलतियाँ न दोहराएँ और अंतिम पैगंबर को स्वीकार करें।
वर्तमान (Present) के संदर्भ में:
धार्मिक कट्टरता: आज भी कई लोग अपने जातीय या धार्मिक अहंकार में अंधे होकर दूसरे धर्मों के प्रति घृणा फैलाते हैं और उनके पैगंबरों या पवित्र ग्रंथों का अपमान करते हैं। यह आयत उसी "इस्तकबार" (अहंकार) की ओर इशारा करती है।
सुविधाजनक धर्म: बहुत से लोग ऐसे धर्म को स्वीकार करते हैं जो उनकी इच्छाओं और lifestyle के अनुकूल हो। जब कोई धार्मिक शिक्षा उनकी इच्छाओं के खिलाफ जाती है (जैसे ब्याज, पर्दा, हलाल खाना) तो वे उसे नज़रअंदाज़ कर देते हैं या तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं। यह "मा ला तहवा अनफुसकुम" (जो तुम्हारी इच्छाओं के अनुकूल न हो) वाली मानसिकता है।
धार्मिक हिंसा: दुनिया में आज भी कुछ लोग ईशनिंदा के आरोप में दूसरों की हत्या कर देते हैं। यह आयत स्पष्ट करती है कि पैगंबरों के खिलाफ यही रवैया अपनाया जाता था।
भविष्य (Future) के संदर्भ में:
सहिष्णुता और संवाद का संदेश: भविष्य के वैश्विक समाज के लिए यह आयत एक महत्वपूर्ण सबक देती है। हमें अहंकार छोड़कर, संवाद और सम्मान के साथ रहना सीखना होगा।
सत्य की खोज: भविष्य की पीढ़ियों के लिए यह संदेश हमेशा प्रासंगिक रहेगा कि सत्य को उसके स्रोत से जांच-परखकर स्वीकार करना चाहिए, न कि उसके खिलाफ पूर्वाग्रहों के कारण उसे झुठलाना चाहिए।
ईश्वरीय मार्गदर्शन पर विश्वास: यह आयत भविष्य में भी लोगों को यह याद दिलाती रहेगी कि अल्लाह ने हमेशा मानवता का मार्गदर्शन किया है। इसके बजाय अगर कोई समुदाय गुमराह है, तो उसका कारण उसका अपना अहंकार और जिद है, अल्लाह का कोई भेदभाव नहीं।
निष्कर्ष: क़ुरआन की यह आयत एक शक्तिशाली ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करती है। यह दिखाती है कि कैसे अल्लाह के एहसानों के बावजूद, अहंकार और हवा-ए-नफ्स इंसान को सच्चाई स्वीकार करने से रोक सकते हैं और उसे इनकार और हिंसा तक ले जा सकते हैं। यह हर युग के इंसान के लिए एक गहन चेतावनी है कि वह अपने अंदर के अहंकार को पहचाने और सत्य के सामने विनम्रता पूर्वक सिर झुकाना सीखे।