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क़ुरआन 2:89 (सूरह अल-बक़राह) - पूर्ण व्याख्या

 

१. पूरी आयत अरबी में:

وَلَمَّا جَاءَهُمْ كِتَابٌ مِّنْ عِندِ اللَّهِ مُصَدِّقٌ لِّمَا مَعَهُمْ وَكَانُوا مِن قَبْلُ يَسْتَفْتِحُونَ عَلَى الَّذِينَ كَفَرُوا فَلَمَّا جَاءَهُم مَّا عَرَفُوا كَفَرُوا بِهِ ۚ فَلَعْنَةُ اللَّهِ عَلَى الْكَافِرِينَ

२. शब्द-दर-शब्द अर्थ (Arabic Words Meaning):

  • وَلَمَّا: और जब।

  • جَاءَهُمْ: उनके पास आया।

  • كِتَابٌ: एक किताब (क़ुरआन)।

  • مِّنْ عِندِ اللَّهِ: अल्लाह की तरफ से।

  • مُصَدِّقٌ: पुष्टि करने वाली।

  • لِّمَا: उस (चीज़) की।

  • مَعَهُمْ: उनके पास (मौजूद) है।

  • وَكَانُوا: और वे (बनी इस्राईल)।

  • مِن قَبْلُ: पहले से।

  • يَسْتَفْتِحُونَ: फतह (विजय) की दुआ मांगते थे।

  • عَلَى: पर।

  • الَّذِينَ كَفَرُوا: जिन लोगों ने कुफ्र किया (मक्का के मुशरिक)।

  • فَلَمَّا: तो जब।

  • جَاءَهُم: उनके पास आ गया।

  • مَّا: वह (चीज़)।

  • عَرَفُوا: उन्होंने पहचान लिया।

  • كَفَرُوا: उन्होंने इनकार कर दिया।

  • بِهِ: उससे।

  • فَلَعْنَةُ: तो लानत है।

  • اللَّهِ: अल्लाह की।

  • عَلَى: पर।

  • الْكَافِرِينَ: इनकार करने वालों की।

३. आयत का पूरा अर्थ (Full Explanation in Hindi):

इस आयत का पूरा अर्थ है: "और जब उन (यहूदियों) के पास अल्लाह की ओर से एक किताब (क़ुरआन) आई, जो उस (तौरात) की पुष्टि करने वाली थी जो उनके पास पहले से मौजूद थी, और इससे पहले वे काफिरों (मक्का के मुशरिकीन) पर विजय पाने की दुआ मांगा करते थे (यह कहकर कि अहमद नाम के पैगंबर के आने पर हम तुमपर विजय पाएंगे)। फिर जब वह (पैगंबर और किताब) आ गया जिसे उन्होंने पहचान लिया (अपनी किताब से), तो उन्होंने उसका इनकार कर दिया। तो काफिरों पर अल्लाह की लानत है।"

गहन व्याख्या:
यह आयत बनी इस्राईल (यहूदियों) के एक बड़े विरोधाभास (Hypocrisy) और कृतघ्नता को उजागर करती है।

पहला चरण: दुआ और प्रतीक्षा (The Hope and The Prayer)

  • आयत बताती है कि मदीना के यहूदी मक्का के मुशरिकीन (बहुदेववादियों) से लड़ाई-झगड़े की स्थिति में थे।

  • अपनी किताब तौरात में उन्होंने पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आगमन के बारे में पढ़ा हुआ था। उन्हें पता था कि एक अंतिम पैगंबर आएंगे जिनका नाम "अहमद" या उनकी विशेषताएँ होगी।

  • वे मक्का के मुशरिकीन को धमकी देते थे और उन पर विजय पाने की दुआ मांगते थे, यह कहकर कि "जब वह पैगंबर आएंगे, तो हम उनके साथ मिलकर तुम्हें हरा देंगे।"

दूसरा चरण: सत्य का आगमन और इनकार (The Arrival and The Denial)

  • जब वही पैगंबर, जिसकी भविष्यवाणी उनकी अपनी किताब में थी, मदीना में तशरीफ ले आए और अल्लाह की ओर से क़ुरआन उतरा, जो तौरात में दी गई भविष्यवाणियों की पुष्टि करता था, तो स्थिति बदल गई।

  • उन्होंने पैगंबर को पहचान तो लिया, लेकिन ईर्ष्या, जातीय अहंकार और सत्ता खोने के डर के कारण उन्होंने उनका साथ देने के बजाय उनका इनकार कर दिया।

तीसरा चरण: दैवीय निर्णय (The Divine Judgment)

  • इस स्पष्ट कृतघ्नता, विश्वासघात और जानबूझकर सत्य को ठुकराने के कारण, आयत का अंत एक कठोर निर्णय के साथ होता है: "तो काफिरों पर अल्लाह की लानत है।" यह लानत उनके अपने ही कर्मों का तार्किक परिणाम है।

४. शिक्षा और सबक (Lesson and Moral):

  • ज्ञान की जिम्मेदारी: सिर्फ ज्ञान रखना ही काफी नहीं है; उस ज्ञान के अनुसार अमल करना जरूरी है। जो लोग सच्चाई को जानते हुए भी उससे मुंह मोड़ते हैं, उनकी हालत सबसे खराब है।

  • अहंकार और ईर्ष्या का परिणाम: जातीयता, समूहवाद और दूसरों से ईर्ष्या इंसान को सच्चाई तक पहुँचने से रोकती है और उसे विनाश की ओर ले जाती है।

  • ईमान की कसौटी: असली ईमान की कसौटी यह है कि जब सच्चाई आपकी अपनी उम्मीदों और धारणाओं के विपरीत रूप में सामने आए, तो क्या आप उसे स्वीकार करते हैं?

  • अल्लाह का वादा सच्चा है: अल्लाह ने जो वादे अपनी किताबों में किए हैं, वे सच्चे हैं। यहूदी तौरात में वादा किए गए पैगंबर के रूप में मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का आना इस बात का प्रमाण है।

५. अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):

  • अतीत (Past) के संदर्भ में:

    • यह आयत सीधे तौर पर मदीना के यहूदियों के उस व्यवहार का वर्णन है जो ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित है।

    • यह इस बात का सबूत है कि क़ुरआन एक दिव्य किताब है, क्योंकि यह यहूदियों के दिलों की गुप्त बातों और उनकी तौरात में मौजूद भविष्यवाणी को उजागर कर रही थी।

  • वर्तमान (Present) के संदर्भ में:

    • चुनिन्दा आस्तिकता: आज भी बहुत से लोग धार्मिक ग्रंथों की भविष्यवाणियों या शिक्षाओं का चुनिन्दा तरीके से इस्तेमाल करते हैं। जो बात उनके हित में हो, उसे मान लेते हैं और जो उनके हित के खिलाफ हो, उसे नजरअंदाज कर देते हैं। यह आयत ठीक इसी मानसिकता पर चोट करती है।

    • समूहगत अहंकार: आज भी कई धार्मिक समुदाय यह मानते हैं कि मुक्ति सिर्फ उन्हीं के समूह के लिए है। अगर सच्चाई किसी और समुदाय से आती है तो वे उसे स्वीकार नहीं करते। यह यहूदियों के "चुने हुए लोग" वाले अहंकार जैसा ही है।

    • बौद्धिक अहंकार: कुछ लोग बौद्धिक रूप से इस्लाम की सच्चाई को समझ तो जाते हैं, लेकिन सामाजिक दबाव, पारिवारिक मान्यताओं या अपनी हैसियत खोने के डर से उसे स्वीकार नहीं करते।

  • भविष्य (Future) के संदर्भ में:

    • सत्य के प्रति ईमानदारी: यह आयत भविष्य की हर पीढ़ी को सिखाएगी कि सत्य को स्वीकार करने के लिए ईमानदार और निस्वार्थ होना जरूरी है। व्यक्तिगत लाभ-हानि की गणना से ऊपर उठकर सच को मानना ही असली आस्तिकता है।

    • धार्मिक एकता का आधार: यह आयत ईसाइयों और यहूदियों के लिए हमेशा एक सबक रहेगी कि उनकी अपनी किताबों में आखिरी पैगंबर के बारे में जो भविष्यवाणी है, उसे स्वीकार करें। यह भविष्य के interfaith dialogue (अंतरधार्मिक संवाद) का एक महत्वपूर्ण आधार है।

    • चेतावनी: यह संदेश सदैव प्रासंगिक रहेगा कि जो लोग जानबूझकर सच्चाई को ठुकराते हैं, उनके लिए अल्लाह की नाराजगी है।

निष्कर्ष: क़ुरआन की यह आयत मानवीय कमजोरी के एक गहन पहलू - "स्वार्थ और अहंकार के आगे सत्य का इनकार" - को उजागर करती है। यह एक ऐतिहासिक घटना के माध्यम से हर इंसान को यह सबक देती है कि सच्चाई को पहचानने और स्वीकार करने के लिए दिल की पवित्रता और विनम्रता सबसे जरूरी चीज है। यह अतीत का एक दस्तावेज, वर्तमान के लिए एक चेतावनी और भविष्य के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत है।