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क़ुरआन 2:90 (सूरह अल-बक़राह) - पूर्ण व्याख्या

 

१. पूरी आयत अरबी में:

بِئْسَمَا اشْتَرَوْا بِهِ أَنفُسَهُمْ أَن يَكْفُرُوا بِمَا أَنزَلَ اللَّهُ بَغْيًا أَن يُنَزِّلَ اللَّهُ مِن فَضْلِهِ عَلَىٰ مَن يَشَاءُ مِنْ عِبَادِهِ ۖ فَبَاءُوا بِغَضَبٍ عَلَىٰ غَضَبٍ ۚ وَلِلْكَافِرِينَ عَذَابٌ مُّهِينٌ

२. शब्द-दर-शब्द अर्थ (Arabic Words Meaning):

  • بِئْسَمَا: कितना बुरा है वह (सौदा)।

  • اشْتَرَوْا: उन्होंने खरीदा।

  • بِهِ: उसके बदले में।

  • أَنفُسَهُمْ: अपने आपको।

  • أَن يَكْفُرُوا: कि वे इनकार करें।

  • بِمَا: उस चीज़ का।

  • أَنزَلَ اللَّهُ: जिसे अल्लाह ने उतारा।

  • بَغْيًا: ज़्यादती / हठ / ईर्ष्या के कारण।

  • أَن يُنَزِّلَ اللَّهُ: कि अल्लाह उतारता है।

  • مِن فَضْلِهِ: अपने फज़्ल (अनुग्रह) में से।

  • عَلَىٰ: पर।

  • مَن يَشَاء: जिसपर वह चाहता है।

  • مِنْ عِبَادِهِ: अपने बन्दों में से।

  • فَبَاءُوا: तो वे लौट आए।

  • بِغَضَبٍ: ग़ज़ब (प्रकोप) के साथ।

  • عَلَىٰ غَضَبٍ: ग़ज़ब पर (ग़ज़ब के ऊपर)।

  • وَلِلْكَافِرِينَ: और इनकार करने वालों के लिए।

  • عَذَابٌ: यातना है।

  • مُّهِينٌ: अपमानजनक।

३. आयत का पूरा अर्थ (Full Explanation in Hindi):

इस आयत का पूरा अर्थ है: "कितना बुरा है वह सौदा जिसके बदले में उन्होंने अपने आपको बेच डाला कि अल्लाह के उतारे हुए (क़ुरआन) का सिर्फ इस ज़्यादती और हठ के कारण इनकार कर दें कि अल्लाह अपने फज़्ल (अनुग्रह) से जिसपर चाहता है (उसे पैगंबरी देता है) अपने बन्दों में से। तो वे एक ग़ज़ब (प्रकोप) के ऊपर दूसरे ग़ज़ब के साथ लौट आए। और इनकार करने वालों के लिए अपमानजनक यातना है।"

गहन व्याख्या:
यह आयत पिछली आयतों में वर्णित यहूदियों के इनकार के असली कारणों और उसके भयानक परिणामों को बताती है।

१. सबसे बुरा सौदा (बिसमाश्तरौ):
आयत फिर से उस "सौदे" की बात करती है जिसका जिक्र आयत 86 में हुआ था। यहाँ इस सौदे की भयावहता को और स्पष्ट किया गया है। उन्होंने "अपने आपको" यानी अपनी आत्मा, अपने ईमान और अपनी आखिरत को बेच डाला। बदले में उन्होंने क्या पाया? सिर्फ कुफ्र (इनकार)।

२. इनकार का असली कारण (बग़्यन):
यह आयत उनके इनकार का सबसे महत्वपूर्ण कारण बताती है: "बग़्या"

  • बग़्या का अर्थ: ज़्यादती, हठ, ईर्ष्या, द्वेष।

  • इसका मतलब: उन्होंने क़ुरआन का इनकार इसलिए नहीं किया क्योंकि वह सच्चाई नहीं थी, बल्कि इसलिए किया क्योंकि अल्लाह ने अपना अनुग्रह (पैगंबरी) उनकी अपनी जाति (बनी इस्राईल) के बजाय अरब के एक व्यक्ति पर उतार दिया। यह एक तरह की जातीय ईर्ष्या और धार्मिक एकाधिकार की भावना थी। वे यह बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे कि अल्लाह ने आखिरी पैगंबरी का मानद पद उनके अलावा किसी और को दे दिया।

३. दोहरा प्रकोप (ग़ज़ब अला ग़ज़ब):
उनके इस जानबूझकर किए गए इनकार और ईर्ष्या का नतीजा यह हुआ कि वे "एक प्रकोप के ऊपर दूसरे प्रकोप के साथ लौट आए।"

  • पहला प्रकोप: उनके पूर्वजों के कर्मों की वजह से उन पर अल्लाह का प्रकोप, जिसका जिक्र तौरात में है।

  • दूसरा प्रकोप: अब उनके अपने कर्मों (पैगंबर मुहम्मद स. के इनकार) की वजह से एक नया प्रकोप।

यह दोहरा प्रकोप उनकी स्थिति की गंभीरता को दर्शाता है।

४. अंतिम चेतावनी:
आयत का अंत उन सभी काफिरों के लिए एक सामान्य चेतावनी के साथ होता है कि उनके लिए "अपमानजनक यातना" तैयार है।

४. शिक्षा और सबक (Lesson and Moral):

  • ईर्ष्या और द्वेष का घातक परिणाम: ईर्ष्या (हसद) इंसान को अंदर से खा जाती है और उसे सबसे बड़ी नेमत (ईमान) से भी वंचित कर देती है।

  • अल्लाह की मर्जी का सम्मान: अल्लाह अपना अनुग्रह (फज़्ल) जिसे चाहता है देता है। इंसान का काम उसके फैसले पर राजी रहना है, न कि उससे ईर्ष्या करना।

  • जातीय और ग्रुप अहंकार: यह सोचना कि ईमान या अल्लाह की नेकी सिर्फ एक खास जाति या समुदाय के लिए है, एक भयानक गुमराही है।

  • सौदेबाजी की मानसिकता से बचना: ईमान कोई व्यापार नहीं है जहाँ हम अपनी शर्तें रखें। यह तो अल्लाह के आगे पूर्ण समर्पण है।

५. अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):

  • अतीत (Past) के संदर्भ में:

    • यह आयत मदीना के यहूदियों की उस ईर्ष्या और हठ को उजागर करती है जो उनके इनकार का मुख्य कारण था।

    • यह उन सभी पिछली कौमों पर भी लागू होती है जिन्होंने पैगंबरों का इनकार सिर्फ इसलिए किया क्योंकि वे उनकी अपनी जाति या कबीले से नहीं थे।

  • वर्तमान (Present) के संदर्भ में:

    • धार्मिक एकाधिकारवाद: आज भी कई धार्मिक समुदाय यह मानते हैं कि "मुक्ति" सिर्फ और सिर्फ उन्हीं के समुदाय के लोगों के लिए है। कोई दूसरा व्यक्ति चाहे कितना भी नेक क्यों न हो, वह बच नहीं सकता। यह "बग़्या" (हठ) का ही एक आधुनिक रूप है।

    • नस्लवाद और जातिवाद: आज भी समाज में नस्लवाद और जातिवाद मौजूद है। लोग दूसरों को उनकी जन्मजात पहचान के आधार पर हीन समझते हैं। यह आयत स्पष्ट करती है कि अल्लाह के यहाँ कोई जाति या नस्ल श्रेष्ठ नहीं है, बल्कि तक़वा (ईश-भय) ही मानदंड है।

    • ऑनलाइन हैट्रैड (नफरत): सोशल मीडिया पर अक्सर लोग दूसरे धर्मों या समुदायों के प्रति ईर्ष्या और द्वेष की भावना से भरी हुई बातें करते हैं। यह आयत हमें ऐसी नफरत से बचने की सीख देती है।

  • भविष्य (Future) के संदर्भ में:

    • सार्वभौमिक भाईचारे का संदेश: भविष्य का एक आदर्श वैश्विक समाज तभी बन सकता है जब मनुष्य जाति, रंग और नस्ल के ऊपर उठकर सोचे। यह आयत इसी सार्वभौमिक भाईचारे की नींव रखती है।

    • विनम्रता का पाठ: यह आयत भविष्य की पीढ़ियों को सिखाएगी कि अल्लाह के सामने विनम्रता ही काम आती है, अहंकार नहीं। उसका फज़्ल (अनुग्रह) उसकी मर्जी पर है।

    • एक स्थायी चेतावनी: जब तक दुनिया रहेगी, लोगों में ईर्ष्या और हठ की प्रवृत्ति रहेगी। यह आयत हमेशा उन्हें यह याद दिलाती रहेगी कि इसका अंतिम परिणाम "ग़ज़ब अला ग़ज़ब" और "अपमानजनक यातना" है।

निष्कर्ष: क़ुरआन की यह आयत मानवीय दोषों में सबसे खतरनाक दोष - "ईर्ष्या और धार्मिक अहंकार" - की पहचान कराती है और उसके विनाशकारी परिणाम से आगाह करती है। यह सिखाती है कि ईमान की कुंजी विनम्रता और अल्लाह के फैसलों पर रज़ामंदी है। यह अतीत के पाप का रहस्योद्घाटन, वर्तमान की बुराइयों का इलाज और भविष्य के लिए एक स्थायी मार्गदर्शन