१. पूरी आयत अरबी में:
وَلَقَدْ أَنزَلْنَا إِلَيْكَ آيَاتٍ بَيِّنَاتٍ ۖ وَمَا يَكْفُرُ بِهَا إِلَّا الْفَاسِقُونَ
२. शब्द-दर-शब्द अर्थ (Arabic Words Meaning):
وَلَقَدْ: और बेशक/निश्चय ही।
أَنزَلْنَا: हमने उतारा है।
إِلَيْكَ: आपकी ओर (हे पैगंबर!)।
آيَاتٍ: आयतें (निशानियाँ, संकेत)।
بَيِّنَاتٍ: स्पष्ट, खुली हुई।
وَمَا: और नहीं।
يَكْفُرُ: इनकार करता है।
بِهَا: उनसे।
إِلَّा: केवल।
الْفَاسِقُونَ: फासिक लोग (अवज्ञाकारी, पापी)।
३. आयत का पूरा अर्थ (Full Explanation in Hindi):
इस आयत का पूरा अर्थ है: "और निश्चय ही हमने आपकी ओर स्पष्ट आयतें (निशानियाँ) उतारी हैं, और उनका इनकार केवल फासिक लोग (अवज्ञाकारी पापी) ही करते हैं।"
गहन व्याख्या:
यह आयत पिछली कई आयतों के तर्कों और प्रमाणों का सारांश प्रस्तुत करती है और एक स्पष्ट निष्कर्ष पर पहुँचती है। अल्लाह पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को सांत्वना और आश्वासन देते हुए कहता है कि उन पर जो वही उतरी है, वह पूरी तरह से स्पष्ट और प्रमाणिक है।
आयत के दो मुख्य भाग:
"हमने आपकी ओर स्पष्ट आयतें उतारी हैं" (वलकद अन्जलना इलैका आयातिन बय्यिनात):
यहाँ "स्पष्ट आयतें" से तात्पर्य क़ुरआन की those आयतों से है जो तर्क, बुद्धि और हृदय पर प्रकाश डालती हैं।
इनमें वैज्ञानिक तथ्य, ऐतिहासिक सबक, नैतिक शिक्षाएँ और भविष्यवाणियाँ शामिल हैं जो साबित करती हैं कि क़ुरआन मनुष्य का कथन नहीं बल्कि अल्लाह का कलाम है।
यह बयान पैगंबर (स.अ.व.) के लिए एक समर्थन है, यह दर्शाता है कि आपके पास सत्य का such स्पष्ट प्रमाण है कि उसमें कोई संदेह की गुंजाइश नहीं है।
"और उनका इनकार केवल फासिक लोग ही करते हैं" (व मा यकफुरु बिहा इल्लल फासिकून):
यह दूसरा भाग एक मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक नियम बताता है। जो लोग इतनी स्पष्ट सच्चाई का भी इनकार करते हैं, उनकी समस्या बौद्धिक नहीं बल्कि नैतिक और आध्यात्मिक है।
"फासिक" वह व्यक्ति है जो जानबूझकर अल्लाह की सीमाओं और आदेशों को तोड़ता है, जिसका हृदय पाप और अवज्ञा से भर गया है। ऐसा व्यक्ति सच्चाई को देखकर भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहता क्योंकि वह उसके हितों, इच्छाओं और अहंकार के विपरीत होती है।
४. शिक्षा और सबक (Lesson and Moral):
क़ुरआन स्पष्ट मार्गदर्शन है: क़ुरआन में किसी प्रकार का कोई संदेह या अस्पष्टता नहीं है। यह सीधा और स्पष्ट मार्गदर्शन है।
इनकार का कारण: लोगों का क़ुरआन और इस्लाम को अस्वीकार करना उसकी कमियों के कारण नहीं, बल्कि उनके अपने चरित्र की विकृति के कारण है। सच्चाई को स्वीकार करने के लिए ईमानदार हृदय चाहिए।
पैगंबर के लिए सांत्वना: इस आयत से पैगंबर (स.अ.व.) और सभी दावत देने वालों को यह सांत्वना मिलती है कि अगर कोई आपकी बात नहीं मानता तो उसके इनकार का दोष आप पर नहीं, बल्कि उसकी अपनी अवज्ञा पर है।
आत्म-जांच: हर व्यक्ति के लिए यह आयत एक चेतावनी है कि अगर उसे क़ुरआन की सच्चाई में संदेह है, तो उसे सबसे पहले अपने अंदर झाँककर देखना चाहिए कि कहीं वह "फिस्क" (पाप और अवज्ञा) में तो नहीं डूबा हुआ है।
५. अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):
अतीत (Past) के संदर्भ में:
यह आयत मक्का और मदीना के उन काफिरों और यहूदियों पर लागू होती थी जिनके पास क़ुरआन के स्पष्ट प्रमाण होने के बावजूद, अपने अहंकार और पापों के कारण उसे ठुकरा दिया।
यह पैगंबर (स.अ.व.) और सहाबा के लिए एक ढाढस थी कि उनके मार्ग में आने वाली रुकावटें सत्य की कमी के कारण नहीं, बल्कि दुश्मनों के दुराचार के कारण हैं।
वर्तमान (Present) के संदर्भ में:
क़ुरआन पर हमले: आज भी लोग क़ुरआन पर विभिन्न प्रकार के आरोप लगाते हैं और उसकी आयतों को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं। यह आयत बताती है कि ऐसा करने वाले "फासिक" हैं, उनकी मानसिकता विकृत है।
नास्तिकता और संदेह: आधुनिक युग में नास्तिकता और संदेहवाद का बोलबाला है। बहुत से लोग बिना गहराई से जाने ही क़ुरआन को खारिज कर देते हैं। यह आयत स्पष्ट करती है कि यह इनकार उनकी आध्यात्मिक अंधत्व और नैतिक पतन का परिणाम है।
दावत-ए-दीन का सिद्धांत: इस्लाम की दावत देने वालों के लिए यह आयत एक मार्गदर्शक है कि उनका काम सिर्फ स्पष्ट संदेश पहुँचाना है। स्वीकार या अस्वीकार करना सुनने वाले के चरित्र पर निर्भर करता है।
आत्म-सुधार: यह आयत हर मुसलमान को यह याद दिलाती है कि सच्चाई को समझने और स्वीकार करने के लिए अपने आप को पापों से बचाकर रखना चाहिए।
भविष्य (Future) के संदर्भ में:
शाश्वत मानदंड: यह आयत एक शाश्वत मानदंड स्थापित करती है कि क़यामत तक, क़ुरआन की स्पष्ट आयतों का इनकार करने वाला हर व्यक्ति "फासिक" की श्रेणी में आएगा।
सत्य का पैमाना: भविष्य में जब भी लोग क़ुरआन का अध्ययन करेंगे, यह आयत उन्हें बताएगी कि अगर कोई इसके स्पष्ट प्रमाणों के बाद भी इनकार करता है, तो समस्या क़ुरआन में नहीं, बल्कि उसके अपने चरित्र में है।
आशा का संदेश: यह आयत भविष्य के मुसलमानों के लिए आशा का संदेश है कि क़ुरआन हमेशा स्पष्ट मार्गदर्शन का स्रोत बना रहेगा और उसे केवल वही लोग ठुकराएंगे जिनके दिल बिगड़ चुके हैं।
निष्कर्ष: क़ुरआन की यह आयत एक सारांश और एक चरित्र-चित्रण है। यह एक ओर क़ुरआन की सत्यता और स्पष्टता की पुष्टि करती है, तो दूसरी ओर उसके इनकार करने वालों की वास्तविक मानसिक स्थिति ("फिस्क" या नैतिक पतन) को उजागर करती है। यह पैगंबर (स.अ.व.) के लिए सांत्वना, ईमान वालों के लिए पुष्टि और इनकार करने वालों के लिए एक कठोर चेतावनी है। यह अतीत का एक सत्य, वर्तमान का एक दर्पण और भविष्य के लिए एक स्थायी कसौटी है।