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कुरआन की आयत 3:108 की पूरी व्याख्या

 

﴿تِلْكَ آيَاتُ اللَّهِ نَتْلُوهَا عَلَيْكَ بِالْحَقِّ ۗ وَمَا اللَّهُ يُرِيدُ ظُلْمًا لِّلْعَالَمِينَ﴾

(Surah Aal-e-Imran, Ayat 108)


अरबी शब्दों के अर्थ (Arabic Words Meaning):

  • تِلْكَ (Tilka): ये (सब) हैं।

  • آيَاتُ اللَّهِ (Aayaatullahi): अल्लाह की आयतें (निशानियाँ/वचन)।

  • نَتْلُوهَا (Natloohaa): हम पढ़ते/सुनाते हैं।

  • عَلَيْكَ (Alaika): आप पर (हज़रत मुहम्मद ﷺ को)।

  • بِالْحَقِّ (Bil-Haqqi): सच्चाई के साथ।

  • وَمَا اللَّهُ (Wa mallaahu): और अल्लाह नहीं चाहता।

  • يُرِيدُ ظُلْمًا (Yureedu Zulman): ज़ुल्म (अन्याय) करना।

  • لِّلْعَالَمِينَ (Lil'aalameen): सारे संसार वालों के लिए।


पूरी तफ्सीर (व्याख्या) और अर्थ (Full Explanation):

इस आयत का पूरा अर्थ है: "ये अल्लाह की आयतें हैं, जिन्हें हम सच्चाई के साथ आपकी ओर प्रकट कर रहे हैं। और अल्लाह संसार वालों पर किसी प्रकार का ज़ुल्म (अन्याय) नहीं चाहता।"

यह आयत पिछली कई आयतों (103 से 107) के सिलसिले का एक महत्वपूर्ण सारांश और आश्वासन है। इन आयतों में कयामत के दृश्य, जन्नत-जहन्नुम का वर्णन और सख्त चेतावनियाँ दी गई थीं। अब अल्लाह तआला इस आयत के माध्यम से अपने बंदों के दिलों में पैदा हुए डर और सवाल को दूर कर रहे हैं।

1. "ये अल्लाह की आयतें हैं, जिन्हें हम सच्चाई के साथ आपकी ओर प्रकट कर रहे हैं":

  • "अल्लाह की आयतें": यह बताता है कि यह मनुष्य का कहा हुआ नहीं, बल्कि अल्लाह का वचन है, जो पूर्ण रूप से सत्य और विश्वसनीय है।

  • "सच्चाई के साथ": इसका मतलब है कि कुरआन की हर बात न्याय, हिकमत (ज्ञान) और सच्चाई पर आधारित है। इसमें कोई मनगढ़ंत या अन्यायपूर्ण बात नहीं है। ये आयतें लोगों के भले के लिए हैं, उन्हें डराने या दबाने के लिए नहीं।

2. "और अल्लाह संसार वालों पर किसी प्रकार का ज़ुल्म नहीं चाहता":

  • यह इस आयत का केंद्रीय संदेश है। पिछली आयतों में जिस अज़ाब (यातना) का वर्णन किया गया था, उसे सुनकर कोई यह सोच सकता है कि क्या अल्लाह अपने बंदों पर ज़ुल्म कर रहा है? इस आयत में उस सवाल का सीधा जवाब दिया गया है।

  • अल्लाह का ज़ुल्म न चाहने के मायने:

    • बिना कारण सज़ा नहीं: अल्लाह किसी को बिना किसी गुनाह के या बिना स्पष्ट चेतावनी दिए सज़ा नहीं देता।

    • सज़ा अपने कर्मों का नतीजा है: जो लोग जहन्नुम में जाएँगे, वह उनके अपने ही कर्मों, उनके इनकार और गुनाहों का सीधा परिणाम होगा। अल्लाह तो बार-बार उन्हें सचेत कर चुका है।

    • मार्गदर्शन का प्रबंध: अल्लाह ने इंसान को सही और गलत का फर्क बताने के लिए पैग़म्बर और किताबें भेजी हैं। यह उसकी रहमत है, ताकि कोई यह न कह सके कि हमें रास्ता ही नहीं पता था।


सबक और शिक्षा (Lesson and Guidance):

  • कुरआन पर पूर्ण विश्वास: हमें इस बात पर दृढ़ विश्वास रखना चाहिए कि कुरआन का हर शब्द सत्य और न्याय पर आधारित है।

  • अल्लाह की न्यायप्रियता: अल्लाह पूर्ण रूप से न्यायकारी है। वह किसी पर ज़रा भ� अन्याय नहीं करता। इंसान को मिलने वाली हर सज़ा उसके अपने किए का ही नतीजा है।

  • जिम्मेदारी का एहसास: चूँकि अल्लाह ज़ुल्म नहीं करता, इसलिए इंसान को अपने कर्मों के लिए पूरी तरह जिम्मेदार ठहराया जाएगा। कोई दोष दूसरे के सिर नहीं मढ़ा जा सकता।


अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):

  • अतीत (Past) में: यह आयत पैग़म्बर ﷺ और आपके साथियों के लिए एक स्पष्टीकरण थी। जब वे लोगों को अल्लाह के अज़ाब से डराते थे, तो कुछ लोग यह कह सकते थे कि अल्लाह तो रहम वाला है, वह सज़ा क्यों देगा? यह आयत स्पष्ट कर देती है कि अल्लाह की रहमत उसके न्याय से अलग नहीं है। सज़ा उन्हीं को मिलेगी जो न्याय के खिलाफ जाकर अपने ऊपर ज़ुल्म करते हैं।

  • वर्तमान (Present) में: आज के दौर में यह आयत बेहद प्रासंगिक है:

    • आस्था के सवाल: आज बहुत से लोग (यहाँ तक कि कुछ मुसलमान भी) सवाल उठाते हैं कि "एक दयालु अल्लाह अपने बंदों को जहन्नुम की सज़ा कैसे दे सकता है?" यह आयत इसका सटीक जवाब है कि अल्लाह ने हमें अक्ल और मार्गदर्शन दिया है। सज़ा हमारे अपने गलत चुनावों का नतीजा है, अल्लाह का ज़ुल्म नहीं।

    • नैतिक जिम्मेदारी: आज का इंसान अपने गुनाहों के लिए समाज, माहौल या हालात को दोष देता है। यह आयत हमें याद दिलाती है कि हम खुद अपने कर्मों के लिए जिम्मेदार हैं।

    • दीन की सही समझ: यह आयत अल्लाह के स्वभाव (न्यायकारी और दयालु) की एक संतुलित तस्वीर पेश करती है। वह सिर्फ माफ करने वाला ही नहीं, बल्कि न्याय करने वाला भी है।

  • भविष्य (Future) के लिए: यह आयत हमेशा मानवता के लिए एक मौलिक सिद्धांत की तरह रहेगी:

    • न्याय का आश्वासन: यह आयत यह विश्वास दिलाती रहेगी कि आखिरत में पूरा न्याय होगा और किसी पर ज़रा सा भी ज़ुल्म नहीं होगा।

    • आशा और भय का संतुलन: एक मुसलमान के दिल में अल्लाह की रहमत की आशा और उसके अज़ाब का डर दोनों होना चाहिए। यह आयत इन दोनों भावनाओं के बीच एक सही संतुलन बनाए रखने में मदद करती है।

यह आयत हमें सिखाती है कि अल्लाह की सारी शिक्षाएँ और आदेश हमारे हित में हैं और उसका हर फैसला पूरी तरह से न्यायपूर्ण है।