﴿وَدَّت طَّائِفَةٌ مِّنْ أَهْلِ الْكِتَابِ لَوْ يُضِلُّونَكُمْ وَمَا يُضِلُّونَ إِلَّا أَنفُسَهُمْ وَمَا يَشْعُرُونَ﴾
(Surah Aal-e-Imran, Ayat: 69)
अरबी शब्दों के अर्थ (Arabic Words Meaning):
وَدَّت طَّائِفَةٌ (Waddat taa'ifatun): एक समूह ने चाहा / इच्छा की।
مِّنْ أَهْلِ الْكِتَابِ (Min Ahlil-Kitaab): अहले-किताब में से।
لَوْ يُضِلُّونَكُمْ (Law yudilloonakum): कि काश वे तुम्हें गुमराह कर दें।
وَمَا يُضِلُّونَ إِلَّا أَنفُسَهُمْ (Wa maa yudilloona illaa anfusahum): और वे गुमराह नहीं करते मगर अपने आपको।
وَمَا يَشْعُرُونَ (Wa maa yash'uroon): और उन्हें खबर (अहसास) नहीं है।
पूरी व्याख्या (Full Explanation in Hindi):
यह आयत अहले-किताब (यहूदियों) के एक समूह की मंशा और उसके वास्तविक परिणाम को उजागर करती है। जब उन्होंने देखा कि उनकी बहसें और दावे मुसलमानों को सच्चाई का रास्ता दिखाने में नाकाम हो रहे हैं, तो उनके दिल में एक गहरी इच्छा पैदा हुई।
इस आयत के तीन मुख्य बिंदु हैं:
बुरी इच्छा (وَدَّت): अहले-किताब के एक समूह ने दिल से "चाहा" कि काश वे मुसलमानों को गुमराह कर सकें। यह केवल बहस नहीं, बल्कि एक सोची-समझी चाल थी। उनकी इच्छा थी कि मुसलमान भी उनकी तरह सच्चाई से भटक जाएँ या उनके धार्मिक नेतृत्व को स्वीकार कर लें।
वास्तविकता (وَمَا يُضِلُّونَ إِلَّا أَنفُسَهُمْ): अल्लाह तुरंत ही इस बात की वास्तविकता सामने रख देता है। वे चाहे कितनी भी कोशिश कर लें, लेकिन "वह गुमराह नहीं करते मगर अपने आपको।" दूसरों को गुमराह करने की साजिश में लगे रहने का सबसे बड़ा नुकसान उन्हीं को होता है। यह एक आध्यात्मिक नियम है - बुराई की योजना बनाना, उसका पहला शिकार खुद योजनाकार को बनाता है। उनका यह कर्म अल्लाह के यहाँ उनके अपने पापों के खाते में जुड़ता जाता है।
अज्ञानता (وَمَا يَشْعُرُونَ): सबसे दुखद बात यह है कि "उन्हें इसका अहसास ही नहीं है।" वह इस सच्चाई से बेखबर हैं कि उनकी साजिशों का सबसे बड़ा नुकसान उन्हीं को हो रहा है। उन्हें लगता है कि वह दूसरों को नुकसान पहुँचा रहे हैं, जबकि वास्तव में वह अपनी आत्मा और अपने अंतिम जीवन को बर्बाद कर रहे हैं।
सीख और शिक्षा (Lesson and Moral):
बुरी नीयत का परिणाम: दूसरों को नुकसान पहुँचाने की इच्छा रखने वाला सबसे पहले खुद उसकी चपेट में आता है। बुरी नीयत इंसान को आध्यात्मिक रूप से अंदर से खोखला कर देती है।
अल्लाह की व्यवस्था पर भरोसा: मोमिन को चाहिए कि वह दूसरों की साजिशों से घबराए नहीं। अल्लाह की व्यवस्था में बुराई करने वाला खुद अपने जाल में फँसता है।
सचेत रहने की जरूरत: दुनिया में हमेशा कुछ लोग ऐसे रहेंगे जो सच्चे लोगों को गुमराह करना चाहेंगे। एक मोमिन को सचेत रहना चाहिए और अपने ईमान की सुरक्षा करनी चाहिए।
अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):
अतीत (Past) के लिए: पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और प्रारंभिक मुसलमानों के लिए, यह आयत एक चेतावनी और सांत्वना दोनों थी। यह उन्हें दुश्मनों की सच्ची मंशा से आगाह करती थी और साथ ही यह विश्वास दिलाती थी कि उनकी साजिशें अंततः विफल होंगी।
वर्तमान (Present) के लिए: आज के संदर्भ में यह आयत अत्यधिक प्रासंगिक है:
सूचना का युग: आज सोशल मीडिया और इंटरनेट पर इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ गुमराह करने वाली सामग्री का एक समुद्र है। यह आयत बताती है कि इनके पीछे भी एक "ताइफा" (समूह) की वही पुरानी इच्छा काम कर रही है।
मुसलमानों के लिए सतर्कता: मुसलमानों को चाहिए कि वह ऐसे प्रोपेगैंडा और भ्रम फैलाने वाली बातों से सावधान रहें और अपना ईमानी ज्ञान मजबूत करें।
आत्म-मंथन: यह आयत हर इंसान से पूछती है: कहीं हम भी तो उन लोगों में शामिल नहीं जो दूसरों को गुमराह करने में लगे हैं, यह सोचे बिना कि इसका सबसे बड़ा नुकसान हमें ही हो रहा है?
भविष्य (Future) के लिए: यह आयत हमेशा मानवता के लिए एक "चिरस्थायी चेतावनी" बनी रहेगी। जब तक दुनिया में सच और झूठ का संघर्ष रहेगा, झूठे लोग सच्चों को गुमराह करना चाहेंगे। यह आयत हर युग के सच्चे लोगों को यह विश्वास दिलाती रहेगी कि बुराई की योजनाएँ अपने योजनाकारों को ही नष्ट करती हैं। साथ ही, यह भविष्य की पीढ़ियों को सतर्क और सजग रहने की शिक्षा देती रहेगी।