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कुरआन की आयत 3:70 की पूरी व्याख्या

 

﴿يَا أَهْلَ الْكِتَابِ لِمَ تَكْفُرُونَ بِآيَاتِ اللَّهِ وَأَنْتُمْ تَشْهَدُونَ﴾

(Surah Aal-e-Imran, Ayat: 70)


अरबी शब्दों के अर्थ (Arabic Words Meaning):

  • يَا أَهْلَ الْكِتَابِ (Yaa Ahlal-Kitaab): ऐ किताब वालो!

  • لِمَ تَكْفُرُونَ (Lima takfuroon): तुम इनकार क्यों करते हो?

  • بِآيَاتِ اللَّهِ (Bi Aayaatil-Laah): अल्लाह की आयतों (निशानियों) का।

  • وَأَنْتُمْ تَشْهَدُونَ (Wa antum tash-hadoon): जबकि तुम स्वयं गवाह हो।


पूरी व्याख्या (Full Explanation in Hindi):

यह आयत अहले-किताब (यहूदियों और ईसाइयों) को एक सीधा और तार्किक सवाल पूछती है। यह सवाल उनकी आंतरिक विरोधाभासी स्थिति को उजागर करता है। अल्लाह उनसे पूछता है कि तुम्हारे पास ज्ञान होने के बावजूद तुम सच्चाई को क्यों ठुकरा रहे हो?

इस आयत के दो मुख्य भाग हैं:

  1. "तुम इनकार क्यों करते हो अल्लाह की आयतों का?": यहाँ "आयात" से मतलब है:

    • कुरआन की आयतें: जो पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर उतरीं और जिनमें हज़रत इब्राहीम, मूसा, ईसा आदि के बारे में सच्चाई बताई गई है।

    • प्रकृति की निशानियाँ: अल्लाह की बनाई हुई दुनिया में उसकी शक्ति और एकता के प्रमाण।

    • पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम): आप स्वयं अल्लाह की एक जीती-जागती आयत (निशानी) थे।

  2. "जबकि तुम स्वयं गवाह हो": यह आयत का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। अहले-किताब "गवाह" थे क्योंकि:

    • उनकी अपनी किताबों (तौरात और इंजील) में पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आगमन की भविष्यवाणी मौजूद थी।

    • उन्हें पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के चरित्र, ईमानदारी और पवित्रता का ज्ञान था, जिसे वह "अल-अमीन" (विश्वसनीय) के नाम से जानते थे।

    • उनके अपने विद्वान इस बात की गवाही देते थे कि यह वही पैगंबर है जिसका उल्लेख उनकी किताबों में है।

संक्षेप में, अल्लाह उनसे पूछ रहा है: "तुम्हारे पास सच्चाई के सबूत हैं, तुम्हें सच्चाई का ज्ञान है, फिर भी तुम उसका इनकार क्यों कर रहे हो? यह तर्कहीन और विरोधाभासी व्यवहार है।"


सीख और शिक्षा (Lesson and Moral):

  1. ज्ञान की जिम्मेदारी: जिसे ज्ञान मिल जाए, उसकी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि वह उस पर अमल करे। सिर्फ जानना ही काफी नहीं है।

  2. पूर्वाग्रह का खतरा: इंसान अगर पूर्वाग्रह (घमंड, जातीय श्रेष्ठता की भावना, दुनियावी लाभ) से ग्रस्त हो, तो वह स्पष्ट सच्चाई को भी ठुकरा देता है।

  3. आंतरिक गवाही: कई बार इंसान का अपना विवेक और ज्ञान उसके खिलाफ गवाही देता है क्योंकि वह जानते हुए भी सच्चाई को नहीं मानता।


अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):

  • अतीत (Past) के लिए: पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय में, यह आयत मदीना के यहूदियों और ईसाइयों के लिए एक सीधी चुनौती थी। यह उनकी हठधर्मी और उनके आंतरिक विरोधाभास को दर्शाती थी।

  • वर्तमान (Present) के लिए: आज के संदर्भ में यह आयत अत्यधिक प्रासंगिक है:

    • आधुनिक अहले-किताब: आज भी कई यहूदी और ईसाई विद्वान कुरआन और पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की सच्चाई को अपनी किताबों में पाते हैं, लेकिन पूर्वाग्रह के कारण उसे स्वीकार नहीं करते।

    • सच्चाई के खोजी: यह आयत हर उस इंसान से सवाल करती है जो सच्चाई की तलाश में है। यह उनसे कहती है कि अपने पूर्वाग्रहों को छोड़कर, निष्पक्ष होकर सच्चाई को देखो और स्वीकार करो।

    • मुसलमानों के लिए चेतावनी: कहीं ऐसा न हो कि हम मुसलमान भी कुरआन की आयतों को जानते-समझते हुए भी उन पर पूरी तरह अमल न करें। यह आयत हमें हमारी जिम्मेदारी का एहसास कराती है।

  • भविष्य (Future) के लिए: यह आयत हमेशा मानवता के सामने "ज्ञान और कर्म के बीच के अंतर" को उजागर करती रहेगी। भविष्य में जब भी कोई समुदाय या व्यक्ति सच्चाई को जानकर भी उसके लिए हठ, घमंड या दुनियावी लाभ के कारण इनकार करेगा, यह आयत उसके लिए एक स्थायी सवाल और चेतावनी बनी रहेगी। यह आयत हर युग के लोगों को निष्पक्षता और ईमानदारी के साथ सच्चाई को स्वीकार करने का आह्वान करती रहेगी।