﴿يَا أَهْلَ الْكِتَابِ لِمَ تَلْبِسُونَ الْحَقَّ بِالْبَاطِلِ وَتَكْتُمُونَ الْحَقَّ وَأَنْتُمْ تَعْلَمُونَ﴾
(Surah Aal-e-Imran, Ayat: 71)
अरबी शब्दों के अर्थ (Arabic Words Meaning):
يَا أَهْلَ الْكِتَابِ (Yaa Ahlal-Kitaab): ऐ किताब वालो!
لِمَ تَلْبِسُونَ (Lima talbisoon): तुम क्यों मिलावट करते हो?
الْحَقَّ بِالْبَاطِلِ (Al-Haqqa bil-baatil): सच्चाई को झूठ के साथ।
وَتَكْتُمُونَ (Wa taktumoon): और छिपाते हो।
الْحَقَّ (Al-Haqqa): सच्चाई को।
وَأَنْتُمْ تَعْلَمُونَ (Wa antum ta'lamoon): जबकि तुम जानते हो।
पूरी व्याख्या (Full Explanation in Hindi):
यह आयत अहले-किताब (यहूदियों और ईसाइयों) की एक और गंभीर धार्मिक बेईमानी को उजागर करती है। अल्लाह उन पर दो बड़े आरोप लगाता है, जो आज भी धार्मिक पाखंड की पहचान हैं।
इस आयत में दो मुख्य अपराध बताए गए हैं:
सच्चाई को झूठ के साथ मिलाना (तलबीस): यह एक बहुत ही खतरनाक हरकत है। अहले-किताब अपनी पवित्र किताबों में सच्चाई के साथ अपनी ओर से बनाई हुई बातें (झूठ) मिला देते थे। उदाहरण के लिए:
पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के बारे में भविष्यवाणियों को अपने रब्बियों और पादरियों की टीकाओं के पीछे छिपा देना।
धर्म के नाम पर गलत अर्थ निकालकर लोगों को भ्रमित करना।
इस तरह वह सच्चाई को इतना धुंधला कर देते थे कि आम लोगों के लिए सही और गलत में फर्क करना मुश्किल हो जाता था।
सच्चाई को छिपाना (कित्मान): यह दूसरा बड़ा अपराध है। वह जानबूझकर उन सच्चाइयों को, जो उनकी अपनी किताबों में मौजूद थीं, लोगों से छिपाते थे। जैसे:
तौरात में पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आने की स्पष्ट भविष्यवाणी को दबा देना।
हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) द्वारा एक अंतिम पैगंबर के आने की खुशखबरी दिए जाने को छिपाना।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अल्लाह दोनों आरोपों के साथ यह कहता है: "जबकि तुम जानते हो।" यानी यह कोई गलती नहीं, बल्कि एक "जानी-बूझी साजिश" थी। उन्हें पता था कि क्या सही है और क्या गलत, फिर भी उन्होंने अपने दुनियावी फायदे (रहबरी, धन, प्रतिष्ठा) के लिए सच्चाई के साथ खिलवाड़ किया।
सीख और शिक्षा (Lesson and Moral):
धार्मिक बेईमानी सबसे बड़ा पाप: धर्म के नाम पर लोगों को भ्रमित करना और सच्चाई को छिपाना अल्लाह को बेहद नापसंद है।
ज्ञान की जिम्मेदारी: ज्ञान रखने वाले का फर्ज है कि वह उसे शुद्ध रूप में लोगों तक पहुँचाए, न कि उसमें मिलावट करे या उसे छिपाए।
ईमानदारी की कसौटी: एक सच्चा मोमिन हमेशा सच्चाई का साथ देता है, चाहे उसके निजी फायदे के खिलाफ ही क्यों न हो।
अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):
अतीत (Past) के लिए: पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय में, यह आयत यहूदी और ईसाई धार्मिक नेताओं के पाखंड का पर्दाफाश करने के लिए एक शक्तिशाली हथियार थी। इसने आम लोगों के सामने उनकी सच्चाई सामने रख दी।
वर्तमान (Present) के लिए: आज के संदर्भ में यह आयत अत्यधिक प्रासंगिक है:
नकली धार्मिक गुरु: आज भी कई ऐसे "धर्म गुरु" हैं जो लोगों को भ्रमित करने के लिए सच्चाई को झूठ के साथ मिलाते हैं और असली ज्ञान को छिपाते हैं।
मीडिया और प्रोपेगैंडा: आज का मीडिया और सोशल मीडिया अक्सर "हक़ को बातिल के साथ" पेश करता है, जहाँ सच्चाई को झूठ के साथ मिलाकर लोगों के सामने रखा जाता है।
मुसलमानों के लिए चेतावनी: कहीं हम मुसलमान भी तो नहीं...
कुरआन और हदीस की आयतों के गलत अर्थ निकालकर लोगों को गुमराह कर रहे हैं?
अपने फायदे के लिए धार्मिक शिक्षाओं को छिपा रहे हैं या तोड़-मरोड़कर पेश कर रहे हैं?
भविष्य (Future) के लिए: यह आयत हमेशा मानवता के लिए "धार्मिक और बौद्धिक ईमानदारी का मानक" बनी रहेगी। भविष्य में जब भी कोई समूह या व्यक्ति सच्चाई को दबाने या उसमें मिलावट करने की कोशिश करेगा, यह आयत उसके खिलाफ एक स्थायी निंदा के रूप में खड़ी रहेगी। यह आयत हर युग के लोगों को सच्चाई को शुद्ध रूप में स्वीकार करने और उसे निडर होकर फैलाने की प्रेरणा देती रहेगी।