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कुरआन की आयत 3:88 की पूरी व्याख्या

 

﴿خَالِدِينَ فِيهَا لَا يُخَفَّفُ عَنْهُمُ الْعَذَابُ وَلَا هُمْ يُنظَرُونَ﴾

(Surah Aal-e-Imran, Ayat: 88)


अरबी शब्दों के अर्थ (Arabic Words Meaning):

  • خَالِدِينَ فِيهَا (Khaalideena feehaa): हमेशा उसमें रहने वाले।

  • لَا يُخَفَّفُ عَنْهُمُ الْعَذَابُ (Laa yukhaffaf 'anhumul 'azaabu): न उनसे यातना हल्की की जाएगी।

  • وَلَا هُمْ يُنظَرُونَ (Wa laa hum yunzaroon): और न ही उन्हें मोहलत दी जाएगी।


पूरी व्याख्या (Full Explanation in Hindi):

यह आयत पिछली दो आयतों (3:86-87) में वर्णित उन लोगों की सज़ा का अंतिम और सबसे भयानक पहलू बताती है, जो ईमान लाने के बाद कुफ़्र (इनकार) में लौट गए। यह आयत उनकी सज़ा की तीन स्थायी विशेषताएं बताती है:

  1. हमेशा रहने वाले (खालिदीन): उनकी सज़ा "अबादी" (हमेशा के लिए) है। वह उस अज़ाब (यातना) और लानत की स्थिति में सदैव के लिए रहेंगे। यह अस्थायी दंड नहीं है बल्कि एक स्थायी अवस्था है।

  2. यातना हल्की नहीं की जाएगी (ला युखफ़फ़): आमतौर पर, दुनिया में किसी की सज़ा उसके अच्छे व्यवहार या माफ़ी की दुआ से हल्की हो सकती है। लेकिन इन लोगों के साथ ऐसा नहीं होगा। उनकी यातना में एक पल के लिए भी कोई कमी नहीं आएगी, न ही उन्हें राहत का कोई क्षण मिलेगा।

  3. मोहलत नहीं दी जाएगी (ला हुम युन्ज़रून): दुनिया में इंसान को सुधार का मौका देने के लिए मोहलत दी जाती है। लेकिन आख़िरत में उन्हें सज़ा से राहत पाने या छुटकारा पाने की कोई "मोहलत" (डेडलाइन/अवसर) नहीं दिया जाएगा। उनका फैसला अंतिम और अपरिवर्तनीय है।

संक्षेप में: ये लोग जहन्नुम में हमेशा रहेंगे, उनकी यातना कभी कम नहीं होगी और न ही उन्हें इस सज़ा से राहत पाने का कोई अवसर दिया जाएगा।


सीख और शिक्षा (Lesson and Moral):

  1. ईमान के साथ खिलवाड़ न करें: ईमान लाने के बाद उसे छोड़ना कोई मामूली गलती नहीं है, बल्कि एक ऐसा गंभीर अपराध है जिसकी सज़ा अत्यंत कठोर और स्थायी है।

  2. अल्लाह की दया की सीमा: अल्लाह बहुत दयालु है, लेकिन जो लोग जानबूझकर और स्पष्टता के बाद उसकी नेमत (ईमान) को ठुकराते हैं, उनके लिए दया के दरवाजे बंद हो जाते हैं।

  3. आख़िरत के फैसले की गंभीरता: आख़िरत का फैसला अटल है। वहाँ कोई रियायत या मोहलत नहीं मिलेगी। इसलिए दुनिया में ही अपने कर्मों को सुधार लेना चाहिए।


अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):

  • अतीत (Past) के लिए: पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय में, यह आयत उन "मुरतद्दीन" (धर्मत्यागियों) के लिए एक स्पष्ट चेतावनी थी जो इस्लाम छोड़कर वापस कुफ़्र में लौट रहे थे। यह आयत उनके भयानक भविष्य से आगाह करती थी।

  • वर्तमान (Present) के लिए: आज के संदर्भ में यह आयत अत्यधिक प्रासंगिक है:

    • धर्म परिवर्तन की गंभीरता: आज जो लोग हल्के ढंग से इस्लाम छोड़ देते हैं, उन्हें इस आयत के माध्यम से समझना चाहिए कि उनका यह कदम उन्हें एक ऐसी स्थायी यातना की ओर धकेल रहा है जहाँ से कोई वापसी नहीं है।

    • ईमान की सुरक्षा: हर मुसलमान को इस आयत से शिक्षा लेकर अपने ईमान की सुरक्षा के प्रति और भी सजग हो जाना चाहिए। ऐसे किसी भी माहौल, संगत या विचार से दूर रहना चाहिए जो ईमान के लिए खतरा बन सकता है।

    • दावत का तरीका: दावत देने वालों के लिए यह आयत एक शक्तिशाली तर्क है कि वह लोगों को इस भयानक परिणाम से आगाह कर सकें।

  • भविष्य (Future) के लिए: यह आयत कयामत तक "ईमान के साथ दगा के भयानक परिणाम" की एक स्थायी चेतावनी बनी रहेगी। भविष्य में जब भी कोई व्यक्ति ईमान को तुच्छ समझेगा या उसके साथ खिलवाड़ करेगा, यह आयत उसके सामने एक अमिट चेतावनी के रूप में मौजूद रहेगी। यह आयत हर युग के लोगों को यह याद दिलाती रहेगी कि आख़िरत का फैसला कोई खेल नहीं है और वहाँ की सज़ाएँ स्थायी और अकाट्य हैं।