(1) पूरी आयत अरबी में:
"مَّا يَفْعَلُ اللَّهُ بِعَذَابِكُمْ إِن شَكَرْتُمْ وَآمَنتُمْ ۚ وَكَانَ اللَّهُ شَاكِرًا عَلِيمًا"
(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):
مَّا (Mā): क्या (कोई कारण नहीं), नहीं।
يَفْعَلُ (Yaf'alu): करेगा।
اللَّهُ (Allāhu): अल्लाह।
بِعَذَابِكُمْ (Bi'adhābikum): तुम्हें दण्ड देना।
إِن (In): यदि।
شَكَرْتُمْ (Shakartum): तुमने कृतज्ञता दिखाई (एहसान माना)।
وَآمَنتُمْ (Wa Āmantum): और तुमने ईमान लाया।
وَكَانَ (Wa Kāna): और है (हमेशा से)।
اللَّهُ (Allāhu): अल्लाह।
شَاكِرًا (Shākiran): कृतज्ञता स्वीकार करने वाला, बदला देने वाला।
عَلِيمًا (ʿAlīman): जानने वाला।
(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:
यह आयत पिछली आयतों के सिलसिले का एक सुंदर और तार्किक अंत प्रस्तुत करती है। पिछली आयतों में मुनाफिकीन (पाखंडियों) पर कड़ी चेतावनी और फिर सच्ची तौबा करने वालों के लिए माफी और इनाम की बात हुई थी। अब अल्लाह तआला अपने बंदों को एक मौलिक और आसान सिद्धांत समझा रहा है।
आयत का भावार्थ: "अल्लाह को तुम्हें दण्ड देने की क्या आवश्यकता है, यदि तुम कृतज्ञ बनो (उसके एहसानों का शुक्र अदा करो) और ईमान लाओ? और अल्लाह (तुम्हारे शुक्र को) बहुत क़द्र करने वाला, (तुम्हारे इरादों को) जानने वाला है।"
(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):
यह आयत अल्लाह के स्वभाव और उसके बंदों के साथ रिश्ते को बहुत ही सरल और दिल छू लेने वाले अंदाज में पेश करती है।
"मा यफ़अलुल्लाहु बि'अज़ाबिकुम" (अल्लाह को तुम्हें दण्ड देने की क्या आवश्यकता है?): यह एक ऐसा सवाल है जो दिल और दिमाग दोनों को झकझोर देता है। अल्लाह तआला यह नहीं कहता कि "मैं तुम्हें अज़ाब नहीं दूंगा," बल्कि वह एक तार्किक सवाल पूछता है। अज़ाब देने का उसका कोई स्वार्थ नहीं है, न ही उसे इसकी कोई जरूरत है। अज़ाब तो बंदे की अपनी गलतियों और नाशुक्री का नतीजा है। अगर बंदा सही रास्ते पर आ जाए, तो अज़ाब का कोई कारण ही नहीं रह जाता।
शर्त: "इन शकरतुम व आमंतुम" (यदि तुम कृतज्ञ बनो और ईमान लाओ): अज़ाब से बचने के लिए अल्लाह ने दो सीधी और स्पष्ट शर्तें रखी हैं:
शुक्र (कृतज्ञता): अल्लाह के दिए हुए अनगिनत ऐहसानों (जीवन, स्वास्थ्य, रोज़ी, हिदायत आदि) को पहचानना और उसके लिए जुबान, दिल और अमल से उसका शुक्र अदा करना।
ईमान: उस पर सच्चे दिल से विश्वास करना और उसके हुक्मों को मानना।
यहां गौर करने वाली बात यह है कि ईमान और शुक्र एक-दूसरे के पूरक हैं। सच्चा ईमान इंसान को शुक्रगुज़ार बनाता है और सच्चा शुक्र ईमान को मजबूत करता है।
अल्लाह की सिफ़ात: "व कानल्लाहु शाकिरन अलीमा"
शाकिर (कृतज्ञता स्वीकार करने वाला): अल्लाह के लिए "शाकिर" का मतलब यह है कि वह अपने बंदे के थोड़े से अच्छे अमल को बहुत ज्यादा बढ़ा-चढ़ाकर स्वीकार करता है और उसका बेहिसाब बदला देता है। बंदा एक कदम चलता है तो अल्लाह दस गुना इनाम देता है।
अलीम (जानने वाला): अल्लाह हर किसी के शुक्र और ईमान की हकीकत को जानता है। वह दिखावे और सच्चाई में फर्क करता है। वह बंदे की मजबूरी और लाचारी को भी जानता है और उसके नाज़ुक इरादों को भी।
(5) शिक्षा और सबक (Lesson):
अल्लाह की दया का विस्तार: अल्लाह अपने बंदों को अज़ाब देना नहीं चाहता। वह तो चाहता है कि वे ईमान और शुक्र के जरिए उसकी रहमत के हकदार बन जाएं।
जीवन का सार: इंसान के जीवन का मूल मकसद दो चीजें हैं: अल्लाह पर ईमान लाना और उसके एहसानों का शुक्र अदा करना। यही सीधा और सरल रास्ता है।
आशावादी दृष्टिकोण: यह आयत इंसान में एक सकारात्मक सोच पैदा करती है। वह अपने आप से कह सकता है, "अल्लाह मुझे पकड़ना या सजा देना नहीं चाहता, बल्कि वह तो चाहता है कि मैं उसके एहसान मानूं और उस पर ईमान लाऊं।"
(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):
अतीत (Past) में: यह आयत उन सभी लोगों के लिए एक आशा का संदेश थी जो गुनाहों में डूबे हुए थे या जिन्होंने पाखंड जैसे बड़े गुनाह किए थे। इसने उन्हें दिखाया कि अज़ाब से बचने का रास्ता बहुत स्पष्ट और सीधा है।
समकालीन वर्तमान (Contemporary Present) में: आज के दौर में यह आयत बेहद प्रासंगिक है।
अवसाद और निराशा का इलाज: आज का इंसान तनाव, अवसाद और निराशा से घिरा हुआ है। वह अपनी कमियों और मुश्किलों पर ही ध्यान देता है। यह आयत उसे सिखाती है कि शुक्र ( gratitude ) का रवैया अपनाएं। जो कुछ उसने दिया है, उस पर ध्यान दे और उसके लिए अल्लाह का शुक्र अदा करे। यह मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक शक्तिशाली उपचार है।
भौतिकवाद के युग में ईमान: एक भौतिकवादी दुनिया में लोग ईमान और अल्लाह को भूल चुके हैं। यह आयत उन्हें याद दिलाती है कि सच्ची शांति और सुरक्षा का रास्ता ईमान में ही है।
ईश्वर की गलत छवि: कई लोग अल्लाह को एक सजा देने वाले और बदला लेने वाले के रूप में देखते हैं। यह आयत अल्लाह की सही छवि पेश करती है - वह एक कृतज्ञता स्वीकार करने वाला और बदला देने वाला मालिक है।
भविष्य (Future) में: जब तक इंसानी समाज रहेगा, ईमान और शुक्र की ज़रूरत बनी रहेगी। भविष्य की चुनौतियां चाहे कितनी भी जटिल क्यों न हों, इंसान के लिए यही दो सिद्धांत (ईमान और शुक्र) उसके लिए अल्लाह की रहमत और जन्नत का पासपोर्ट बने रहेंगे। यह आयत हमेशा यह संदेश देती रहेगी कि अल्लाह की ओर लौटना और उसके एहसान मानना ही एकमात्र सफलता का रास्ता है।
निष्कर्ष: सूरह अन-निसा की यह आयत अल्लाह की रहमत और मोमिन के लिए उसकी दया की पराकाष्ठा है। यह हमें बताती है कि अल्लाह का दरवाजा माफी और रहमत का है, अज़ाब का नहीं। हमारा काम बस इतना है कि हम सच्चे दिल से उस पर ईमान लाएं और उसके हर एहसान का शुक्र अदा करें। यही हमारे लिए दुनिया और आखिरत में कामयाबी का सबसे आसान और सीधा रास्ता है।