कुरआन की आयत 4:148 की पूर्ण व्याख्या

 (1) पूरी आयत अरबी में:

"لَّا يُحِبُّ اللَّهُ الْجَهْرَ بِالسُّوءِ مِنَ الْقَوْلِ إِلَّا مَن ظُلِمَ ۚ وَكَانَ اللَّهُ سَمِيعًا عَلِيمًا"

(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):

  • لَّا (Lā): नहीं।

  • يُحِبُّ (Yuhibbu): पसंद करता है।

  • اللَّهُ (Allāhu): अल्लाह।

  • الْجَهْرَ (Al-Jahra): खुलकर, ज़ोर से, सार्वजनिक रूप से।

  • بِالسُّوءِ (Bi's-Sū'i): बुराई के साथ।

  • مِنَ (Mina): में से।

  • الْقَوْلِ (Al-Qawli): बात (कथन)।

  • إِلَّا (Illā): सिवाय।

  • مَن (Man): उस व्यक्ति को।

  • ظُلِمَ (Zulima): जिस पर ज़ुल्म (अत्याचार) किया गया हो।

  • وَكَانَ (Wa Kāna): और है (हमेशा से)।

  • اللَّهُ (Allāhu): अल्लाह।

  • سَمِيعًا (Samī’an): सुनने वाला।

  • عَلِيمًا (‘Alīman): जानने वाला।

(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:

यह आयत समाज में बोलचाल और व्यवहार के एक बहुत ही नाज़ुक और महत्वपूर्ण पहलू पर रोशनी डालती है। यह बुरे और अपमानजनक शब्दों के प्रयोग पर एक सामान्य नियम बताती है और फिर एक विशेष परिस्थिति में उसके अपवाद की अनुमति देती है।

आयत का भावार्थ: "अल्लाह बुरी बात को ज़ोर से (या सार्वजनिक रूप से) कहना पसंद नहीं करता, सिवाय उस व्यक्ति के जिस पर अत्याचार किया गया हो। और अल्लाह सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।"

(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):

यह आयत समाजिक शिष्टता, नैतिकता और न्याय के बीच एक सुनहरा संतुलन स्थापित करती है।

  • सामान्य नियम: "अल्लाह बुरी बात के ज़ोर से कहने को पसंद नहीं करता"

    • "अल-जहर बिस-सू'" यानी बुराई को जोर-शोर से, सार्वजनिक रूप से उछालना। इसमें गाली-गलौज, अपशब्द, किसी की बेइज्जती करना, बददुआएं देना, या किसी की गलतियों और रहस्यों को public में उजागर करना शामिल है।

    • अल्लाह ऐसा करना पसंद नहीं करता क्योंकि इससे समाज में बुराई फैलती है, लोगों के दिल दुखते हैं, रिश्ते खराब होते हैं और समाज का माहौल विषैला हो जाता है। इस्लाम हमेशा शांति, भाईचारे और लोगों की इज्जत को बचाने का हुक्म देता है।

  • अपवाद: "सिवाय उस व्यक्ति के जिस पर ज़ुल्म किया गया हो"

    • यहां आयत एक महत्वपूर्ण अपवाद पेश करती है। यदि किसी व्यक्ति के साथ ज़ुल्म (अत्याचार) हुआ है, तो उसे यह अधिकार है कि वह अपनी पीड़ा और शिकायत को ज़ोर से और सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर सके।

    • इस अपवाद के पीछे ज्ञान:

      1. न्याय प्राप्ति का मार्ग: मजलूम (पीड़ित) के लिए यह न्याय प्राप्त करने का एक तरीका है। जब वह चुप रहता है तो जालिम बेखौफ होकर अत्याचार जारी रखता है। अपनी बात को उठाकर वह समाज और कानून का ध्यान जुल्म की ओर खींचता है।

      2. भावनात्मक राहत: जुल्म सहने वाले के लिए अपना दर्द व्यक्त करना एक मनोवैज्ञानिक उपचार है। इससे उसके मन का बोझ हल्का होता है।

      3. बुराई को रोकना: मजलूम का चुप रहना जालिम को प्रोत्साहन देता है। इसलिए, जुल्म के खिलाफ आवाज उठाना एक सामाजिक जिम्मेदारी है ताकि बुराई को फैलने से रोका जा सके।

  • अल्लाह की सिफात: "व कानल्लाहु समी'अन अलीमा"

    • समी' (सुनने वाला): अल्लाह मजलूम की पुकार और दुआ को सुनता है, चाहे वह कितनी भी धीमी आवाज में क्यों न हो।

    • अलीम (जानने वाला): अल्लाह हर स्थिति की पूरी जानकारी रखता है। वह जानता है कि कौन मजलूम है और कौन जालिम। वह मजलूम के इरादे को भी जानता है - क्या वह सचमुच न्याय चाहता है या सिर्फ बदला लेना या फसाद फैलाना।

(5) शिक्षा और सबक (Lesson):

  1. भाषा की शुद्धता: एक मुसलमान को अपनी जुबान और बोलचाल को शुद्ध और अच्छा रखना चाहिए। गंदी और अपमानजनक भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

  2. दूसरों की इज्जत: दूसरों की गलतियों और रहस्यों को public में उजागर करके उनका मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए।

  3. मजलूम का समर्थन: जुल्म के खिलाफ आवाज उठाना एक धार्मिक और नैतिक दायित्व है। चाहे जुल्म हम पर हो या किसी और पर, हमें उसका डटकर सामना करना चाहिए।

  4. संतुलन का सिद्धांत: इस्लाम हमेशा संतुलन सिखाता है। आम तौर पर शांति और अच्छे व्यवहार का हुक्म है, लेकिन जहां जुल्म हो, वहां चुप रहने के बजाय न्याय के लिए खड़े होने का हुक्म है।

(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):

  • अतीत (Past) में: यह आयत उस समय के मुस्लिम समाज के लिए एक आदर्श आचार संहिता थी। इसने लोगों को गाली-गलौज और फसाद फैलाने से रोका और साथ ही मजलूमों को न्याय दिलाने का रास्ता खोला।

  • समकालीन वर्तमान (Contemporary Present) में: आज के दौर में यह आयत अत्यधिक प्रासंगिक है।

    • सोशल मीडिया और साइबर बुलिंग: आज लोग सोशल मीडिया पर बिना सोचे-समझे दूसरों के लिए गंदी टिप्पणियां करते हैं, उनका मज़ाक उड़ाते हैं और उन्हें शर्मिंदा करते हैं। यह आयत स्पष्ट रूप से ऐसे "अल-जहर बिस-सू" (बुराई को public करने) को गलत ठहराती है।

    • मी टू मूवमेंट और न्याय: दूसरी ओर, जो लोग यौन उत्पीड़न या अन्य अत्याचारों का शिकार हुए हैं, उनके लिए अपनी आवाज उठाना ("इल्ला मन जुलिम") एक धार्मिक अधिकार है। यह आयत उन्हें नैतिक समर्थन देती है कि वे चुप न रहें और न्याय के लिए अपनी बात कहें।

    • सकारात्मक समाज का निर्माण: यह आयत एक स्वस्थ और नैतिक समाज के निर्माण में मदद करती है जहां लोग एक-दूसरे की इज्जत करें, लेकिन जहां अत्याचार सहने वालों को न्याय मिले।

  • भविष्य (Future) में: जब तक मानव समाज रहेगा, भाषा का दुरुपयोग और अत्याचार की घटनाएं होती रहेंगी। यह आयत भविष्य के सभी लोगों के लिए एक स्थायी मार्गदर्शन बनी रहेगी। यह हमेशा यह सिखाती रहेगी कि "बुरा मत बोलो, लेकिन जुल्म के खिलाफ आवाज जरूर उठाओ।" यह संतुलन भविष्य की हर पीढ़ी को एक बेहतर और न्यायपूर्ण समाज बनाने में मदद करेगा।

निष्कर्ष: सूरह अन-निसा की यह आयत हमें हमारे शब्दों की शक्ति का एहसास कराती है। यह सिखाती है कि हमारी जुबान दूसरों की इज्जत को ठेस पहुंचाने का हथियार नहीं, बल्कि अत्याचार के खिलाफ न्याय की मांग करने का जरिया होनी चाहिए। यह इस्लाम की व्यावहारिकता और सार्वभौमिक नैतिकता का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।