(1) पूरी आयत अरबी में:
"فَبِمَا نَقْضِهِم مِّيثَاقَهُمْ وَكُفْرِهِم بِآيَاتِ اللَّهِ وَقَتْلِهِمُ الْأَنبِيَاءَ بِغَيْرِ حَقٍّ وَقَوْلِهِمْ قُلُوبُنَا غُلْفٌ ۚ بَلْ طَبَعَ اللَّهُ عَلَيْهَا بِكُفْرِهِمْ فَلَا يُؤْمِنُونَ إِلَّا قَلِيلًا"
(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):
فَبِمَا (Fa-bimā): तो (सजा) इस कारण है।
نَقْضِهِم (Naqḍihim): उनके तोड़ने के कारण।
مِّيثَاقَهُمْ (Mīthāqahum): उनके वचन/समझौते को।
وَكُفْرِهِم (Wa Kufrihim): और उनके इनकार के कारण।
بِآيَاتِ (Bi-āyāti): आयतों (निशानियों) से।
اللَّهِ (Allāhi): अल्लाह की।
وَقَتْلِهِمُ (Wa Qatlihimu): और उनके मारने के कारण।
الْأَنبِيَاءَ (Al-Anbiyā'a): पैगम्बरों को।
بِغَيْرِ (Bighayri): बिना।
حَقٍّ (Haqqin): किसी अधिकार के (नाहक़)।
وَقَوْلِهِمْ (Wa Qawlihim): और उनके कहने के कारण।
قُلُوبُنَا (Qulūbunā): हमारे दिल।
غُلْفٌ (Ghulfun): ढके हुए/आवरण युक्त हैं।
بَلْ (Bal): बल्कि (सच तो यह है)।
طَبَعَ (Ṭaba'a): मुहर लगा दी।
اللَّهُ (Allāhu): अल्लाह ने।
عَلَيْهَا (Alayhā): उन (दिलों) पर।
بِكُفْرِهِم (Bi-kufrihim): उनके कुफ्र के कारण।
فَلَا (Falā): तो नहीं।
يُؤْمِنُونَ (Yu'minūna): वे ईमान लाते हैं।
إِلَّا (Illā): सिवाय।
قَلِيلًا (Qalīlan): बहुत थोड़ा।
(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:
यह आयत पिछली आयतों में चल रहे बनी इसराईल के इतिहास का अगला चरण पेश करती है। जहां पहले अल्लाह के अनुग्रहों का जिक्र था, वहीं अब उनकी अवज्ञा, पापों और उसके परिणामों का वर्णन है। यह बताती है कि आखिर किन कारणों से अल्लाह का कोप उन पर हुआ।
आयत का भावार्थ: "तो (उन पर अल्लाह का प्रकोप) उनके अपने वचन को तोड़ने, अल्लाह की आयतों का इनकार करने, नाहक़ पैगम्बरों को कत्ल करने और उनके इस कहने के कारण हुआ कि 'हमारे दिल ढके हुए हैं'। बल्कि (सच यह है कि) उनके कुफ्र के कारण अल्लाह ने उनके दिलों पर मुहर लगा दी है, इसलिए वे बहुत थोड़े ही (बातों पर) ईमान लाते हैं।"
(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):
यह आयत बनी इसराईल के चार प्रमुख अपराधों को गिनाती है, जिनकी वजह से वह अल्लाह की कृपा से वंचित हो गए।
उनके चार प्रमुख अपराध:
अपना वचन तोड़ना (बिमा नकज़िहिम मीसाकहुम): यह सबसे बुनियादी अपराध था। उन्होंने बार-बार अल्लाह के साथ किए गए पक्के समझौतों और वचनों को तोड़ा। तौरात पर अमल करने, अल्लाह के आदेश मानने और पैगम्बरों की बात मानने का जो वचन उन्होंने दिया था, उसका उल्लंघन किया।
अल्लाह की आयतों का इनकार (व कुफ्रिहिम बि-आयातिल्लाह): अल्लाह ने उन्हें तौरात के रूप में एक पूरी किताब दी, मूसा (अलैहिस्सलाम) जैसे पैगम्बर के माध्यम से अनेक चमत्कार (मोजिज़े) दिखाए, लेकिन उन्होंने उन स्पष्ट निशानियों का भी इनकार कर दिया। उन्होंने उन आयतों को तोड़-मरोड़कर पेश किया या उनकी सच्चाई को छिपाया।
पैगम्बरों की हत्या (व कत्लिहिमुल अम्बिया-या बि-गैरि हक्किन): यह उनका सबसे जघन्य अपराध था। ऐतिहासिक रूप से यह साबित है कि बनी इसराईल ने कई पैगम्बरों की हत्या की, सिर्फ इसलिए क्योंकि वह उन्हें अल्लाह का सच्चा संदेश सुनाते थे और उनके गुनाहों पर टोकते थे। यह अल्लाह के प्रति सीधी चुनौती और उसकी रहमत के दूतों के प्रति सबसे बड़ा जुल्म था।
घमंड भरा बहाना (व कौलिहिम कुलूबुना गुल्फुन): जब उन्हें सत्य का एहसास होता था या उनकी गलती साबित हो जाती थी, तो वह यह घमंड भरा बहाना बनाते थे कि "हमारे दिल (समझने के लिए) ढके हुए हैं।" यानी, "हम नहीं समझते, हम पर कोई जिम्मेदारी नहीं।" यह उनकी जिद और अहंकार को दर्शाता है।
अल्लाह की प्रतिक्रिया: "बल तबअल्लाहु अलैहा बि-कुफ्रिहिम..."
उनके लगातार कुफ्र और अवज्ञा के कारण, अल्लाह ने उनके दिलों पर मुहर लगा दी। यह एक दैवीय नियम है: जब कोई व्यक्ति या समुदाय लगातार सत्य को ठुकराता रहता है, तो अल्लाह उसकी बुद्धि और दिल की समझ को छीन लेता है।
इस मुहर का नतीजा यह हुआ कि "फला यु'मिनूना इल्ला कलीला" - वे बहुत थोड़ी सी बातों पर ही ईमान लाते हैं। यानी, वह सच्चाई को पूरी तरह से स्वीकार नहीं कर पाते। उनका ईमान आंशिक और दिखावटी रह जाता है। वह जो मन में आए, उसे मान लेते हैं और जो पसंद न आए, उसे छोड़ देते हैं।
(5) शिक्षा और सबक (Lesson):
वचन की पवित्रता: अल्लाह के साथ किया गया वचन (ईमान, इस्लाम) अत्यंत पवित्र है। उसका पालन करना हर मुसलमान का सबसे पहला दायित्व है।
सत्य को स्वीकार करो: अल्लाह की निशानियों (कुरआन, प्रकृति, विज्ञान) को देखकर उनसे सबक लेना चाहिए, न कि उनका इनकार करना चाहिए।
आध्यात्मिक नेतृत्व का सम्मान: धार्मिक शिक्षकों और नेक लोगों का सम्मान करना चाहिए। उनके प्रति द्वेष और हिंसा की भावना रखना एक भयानक पाप है।
अहंकार से बचो: "हमारे दिल बंद हैं" जैसा बहाना बनाना अहंकार की निशानी है। इंसान को विनम्र होकर सीखने और सुधरने के लिए तैयार रहना चाहिए।
(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):
अतीत (Past) में: यह आयत नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय के यहूदियों को उनकी ऐतिहासिक गलतियों का सामना कराती थी और समझाती थी कि उन पर अल्लाह का प्रकोप क्यों है।
समकालीन वर्तमान (Contemporary Present) में: आज यह आयत हर इंसान और विशेष रूप से मुसलमानों के लिए एक गहरी चेतावनी है।
धार्मिक वचनबद्धता: आज कई मुसलमान नमाज़, रोज़ा, हलाल-हराम जैसे अल्लाह के वचनों को तोड़ते हैं। यह आयत हमें याद दिलाती है कि यह एक गंभीर अपराध है।
कुरआन की आयतों से उदासीनता: कुरआन हमारे सामने है, लेकिन हम उसे पढ़ते-समझते नहीं हैं और उसकी शिक्षाओं को अपने जीवन में नहीं उतारते। यह एक प्रकार का व्यावहारिक इनकार (कुफ्र) ही है।
बहानेबाजी की संस्कृति: आज लोग अपनी धार्मिक लापरवाही के लिए तरह-तरह के बहाने बनाते हैं। "दिल साफ़ होना चाहिए," "हम तो अल्लाह को मानते हैं, बाकी चीजें जरूरी नहीं," आदि। यह ठीक वैसा ही है जैसा "कुलूबुना गुल्फुन" कहना।
दिलों की कठोरता: लगातार गुनाह और सत्य से मुंह मोड़ने का नतीजा यह होता है कि इंसान का दिल सख्त हो जाता है। उसे अच्छाई अच्छी नहीं लगती और बुराई बुरी नहीं लगती। यह अल्लाह की मुहर का आधुनिक रूप है।
भविष्य (Future) में: जब तक इंसान रहेगा, वचन तोड़ने, सत्य को न मानने और बहाने बनाने की प्रवृत्ति बनी रहेगी। यह आयत भविष्य की हर पीढ़ी के लिए एक स्थायी चेतावनी बनी रहेगी कि लगातार की गई अवज्ञा इंसान के दिल और दिमाग पर मुहर लगवा देती है। यह हमें सचेत करती रहेगी कि अपने ईमान और अमल को ताजा रखें, ताकि हमारे दिलों पर वह मुहर न लगे जो सत्य को स्वीकार करने की क्षमता को ही समाप्त कर देती है।
निष्कर्ष: यह आयत हमें बताती है कि अल्लाह का प्रकोप बिना कारण नहीं होता। यह इंसान की अपनी ही जिद, अवज्ञा और पापों का परिणाम होता है। बनी इसराईल का इतिहास हमारे लिए एक चेतावनी है कि हम अल्लाह के वचनों को न तोड़ें, उसकी आयतों से सीखें, उसके दीन के अनुयायियों का सम्मान करें और अहंकार से बचकर विनम्रता के साथ सत्य को स्वीकार करें। केवल इसी तरह हम अल्लाह की कृपा और मार्गदर्शन के हकदार बन सकते हैं।