(1) पूरी आयत अरबी में:
"وَقَوْلِهِمْ إِنَّا قَتَلْنَا الْمَسِيحَ عِيسَى ابْنَ مَرْيَمَ رَسُولَ اللَّهِ وَمَا قَتَلُوهُ وَمَا صَلَبُوهُ وَلَٰكِن شُبِّهَ لَهُمْ ۚ وَإِنَّ الَّذِينَ اخْتَلَفُوا فِيهِ لَفِي شَكٍّ مِّنْهُ ۚ مَا لَهُم بِهِ مِنْ عِلْمٍ إِلَّا اتِّبَاعَ الظَّنِّ ۚ وَمَا قَتَلُوهُ يَقِينًا"
(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):
وَقَوْلِهِمْ (Wa Qawlihim): और उनके कहने के कारण।
إِنَّا (Innā): निश्चित ही हमने।
قَتَلْنَا (Qatalnā): मार डाला।
الْمَسِيحَ (Al-Masīḥa): मसीह को।
عِيسَى (Īsā): ईसा।
ابْنَ (Ibna): पुत्र को।
مَرْيَمَ (Maryama): मरयम के।
رَسُولَ (Rasūla): रसूल (पैगम्बर) को।
اللَّهِ (Allāhi): अल्लाह के।
وَمَا (Wa Mā): और उन्होंने नहीं।
قَتَلُوهُ (Qatalūhu): उन्होंने उसे मारा।
وَمَا (Wa Mā): और नहीं।
صَلَبُوهُ (Ṣalabūhu): उन्होंने उसे सूली पर चढ़ाया।
وَلَٰكِن (Wa Lākin): बल्कि।
شُبِّهَ (Shubbiha): समान बना दिया गया (भ्रम पैदा कर दिया गया)।
لَهُمْ (Lahum): उनके लिए।
وَإِنَّ (Wa Inna): और निश्चित रूप से।
الَّذِينَ (Alladhīna): जो लोग।
اخْتَلَفُوا (Ikhtalafū): मतभेद किया।
فِيهِ (Fīhi): उसके बारे में।
لَفِي (Lafī): अवश्य ही हैं।
شَكٍّ (Shakkin): संदेह में।
مِّنْهُ (Minhu): उससे।
مَا (Mā): नहीं है।
لَهُم (Lahum): उनके पास।
بِهِ (Bihi): उसके बारे में।
مِن (Min): कोई।
عِلْمٍ (Ilmin): ज्ञान।
إِلَّا (Illā): सिवाय।
اتِّبَاعَ (Ittibā'a): अनुसरण करने के।
الظَّنِّ (Až-Žanni): अटकल/अनुमान का।
وَمَا (Wa Mā): और उन्होंने नहीं।
قَتَلُوهُ (Qatalūhu): उसे मारा।
يَقِينًا (Yaqīnan): निश्चित रूप से (यकीन के साथ)।
(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:
यह आयत इस्लाम के सबसे मौलिक और महत्वपूर्ण अकीदों (विश्वासों) में से एक को स्पष्ट करती है। यह यहूदियों के एक और गंभीर दावे का खंडन करती है – हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) को सूली पर चढ़ाने और मार डालने का। यह आयत इस ऐतिहासिक घटना के बारे में इस्लाम का स्पष्ट और अंतिम रुख बताती है।
आयत का भावार्थ: "और (उन पर प्रकोप) उनके इस कहने के कारण (हुआ) कि 'हमने मरयम के बेटे मसीह ईसा अल्लाह के रसूल को मार डाला है।' हालांकि उन्होंने न तो उसे मारा और न ही सूली पर चढ़ाया, बल्कि (किसी और को) उनके लिए (ईसा) जैसा बना दिया गया। और जिन लोगों ने इस (मामले) में मतभेद किया है, वे निश्चित रूप से इसके बारे में संदेह में पड़े हुए हैं। उनके पास इसका कोई ज्ञान नहीं है, बल्कि वे केवल अटकलों का अनुसरण कर रहे हैं। और उन्होंने निश्चित रूप से उसे (ईसा को) नहीं मारा।"
(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):
यह आयत एक ऐतिहासिक दावे को पूरी तरह से खारिज करती है और इसके पीछे की सच्चाई को बयान करती है।
यहूदियों का दावा और उसका खंडन: यहूदी गर्व के साथ यह दावा करते थे कि उन्होंने हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) को सूली पर चढ़ाकर मार डाला। अल्लाह इस दावे को तीन शब्दों में पूरी तरह नकार देता है: "व मा कतलूहू व मा सलबूहू" (और उन्होंने न तो उसे मारा और न ही सूली पर चढ़ाया)।
सच्चाई क्या है? "व लाकिन शुब्बिहा लहुम" (बल्कि उनके लिए (किसी और को) समान बना दिया गया):
इस्लामी मान्यता के अनुसार, अल्लाह ने हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) को बचा लिया और उन्हें आसमान पर उठा लिया।
यहूदियों ने जिसे पकड़ा, सूली पर चढ़ाया और मारा, वह हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) नहीं थे। अल्लाह ने किसी और को हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) का रूप (शबीह) दे दिया था। तफ्सीरों में बताया गया है कि यह यहूदियों का ही एक व्यक्ति था जिसे अल्लाह ने ईसा (अलैहिस्सलाम) का सा रूप दे दिया और यहूदियों ने उसे ही पकड़कर सूली पर चढ़ा दिया।
यह अल्लाह की शक्ति और उसके पैगम्बर की रक्षा करने का एक चमत्कार था।
ईसाईयों में मतभेद और अटकलें: आयत कहती है कि जो लोग इस मामले में मतभेद करते हैं (जैसे ईसाई जो सूली पर मौत और फिर पुनरुत्थान में विश्वास करते हैं), वे वास्तव में संदेह में हैं। उनके पास इसका कोई पक्का ज्ञान नहीं है, वे सिर्फ अफवाहों और अटकलों (अज़-ज़न) के पीछे चल रहे हैं।
अंतिम पुष्टि: "व मा कतलूहू यकीना" (और उन्होंने निश्चित रूप से उसे नहीं मारा): आयत अपने बयान का अंत एक दृढ़ और अंतिम पुष्टि के साथ करती है। यह कोई अस्पष्ट बात नहीं है; यह एक निश्चित सत्य (यक़ीन) है।
(5) शिक्षा और सबक (Lesson):
हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) का सम्मान: एक मुसलमान हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) को अल्लाह का एक महान पैगम्बर और हज़रत मरयम के पुत्र के रूप में मानता और सम्मान करता है।
अल्लाह की शक्ति में विश्वास: अल्लाह अपने पैगम्बरों की रक्षा करने में पूरी तरह सक्षम है। सूली पर चढ़ाना अल्लाह के एक पैगम्बर के लिए शोभा नहीं देता।
ज्ञान के बिना अटकलों से बचें: किसी भी मामले में, खासकर धार्मिक मामलों में, बिना ज्ञान के अफवाहों और अटकलों पर विश्वास नहीं करना चाहिए। सत्य को दृढ़ता से थामना चाहिए।
(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):
अतीत (Past) में: यह आयत यहूदियों के झूठे दावे का सीधा खंडन थी और मुसलमानों के लिए हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) के बारे में सही अकीदा स्थापित करती थी।
समकालीन वर्तमान (Contemporary Present) में: आज यह आयत बेहद प्रासंगिक है।
ईसाई-मुस्लिम संवाद: यह आयत ईसाइयत और इस्लाम के बीच एक मौलिक मतभेद की ओर इशारा करती है। एक मुसलमान हज़रत ईसा की सूली और पुनरुत्थान में विश्वास नहीं करता, बल्कि यह मानता है कि अल्लाह ने उन्हें बचा लिया और वह दोबारा दुनिया में आएंगे (दज्जाल के खिलाफ लड़ने के लिए)। यह संवाद के लिए एक आधारभूत बिंदु है।
सत्य बनाम अटकल: आज का मीडिया और सोशल मीडिया अटकलों (ज़न) से भरा पड़ा है। लोग बिना पुष्टि किए किसी भी खबर को फैला देते हैं। यह आयत हमें सिखाती है कि हमें "इत्तिबा अज़-ज़न" (अनुमान का अनुसरण) से बचना चाहिए और यकीनी ज्ञान तक पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए।
धार्मिक सहिष्णुता: जबकि मुसलमान ईसाइयों के इस विश्वास से सहमत नहीं हैं, वे हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) का गहरा सम्मान करते हैं। यह आयत सम्मानपूर्ण असहमति का एक उदाहरण है।
भविष्य (Future) में: जब तक ईसाई और मुसलमान दुनिया में रहेंगे, हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) की भूमिका और उनके अंत के बारे में यह मतभेद बना रहेगा। यह आयत कयामत तक मुसलमानों के लिए एक स्थायी मार्गदर्शक सिद्धांत बनी रहेगी। यह उन्हें याद दिलाती रहेगी कि हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) अल्लाह के सम्मानित पैगम्बर हैं और उनकी हत्या नहीं की गई। साथ ही, यह भविष्य के सभी लोगों को "अटकल" के बजाय "यक़ीन" पर चलने की शिक्षा देती रहेगी।
निष्कर्ष: कुरआन की यह आयत एक ऐतिहासिक दावे को स्पष्ट शब्दों में खारिज करते हुए एक बहुत बड़े सत्य को स्थापित करती है। यह हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) के प्रति इस्लाम के गहरे सम्मान को दर्शाती है और यह स्पष्ट करती है कि अल्लाह के पैगम्बर की हत्या नहीं की गई, बल्कि अल्लाह ने उन्हें बचा लिया। यह आयत हमें सिखाती है कि हमें धार्मिक मामलों में अटकलों से दूर रहकर दृढ़ विश्वास और ज्ञान पर आधारित सत्य को थामना चाहिए।