(1) पूरी आयत अरबी में:
"لَّٰكِنِ الرَّاسِخُونَ فِي الْعِلْمِ مِنْهُمْ وَالْمُؤْمِنُونَ يُؤْمِنُونَ بِمَا أُنزِلَ إِلَيْكَ وَمَا أُنزِلَ مِن قَبْلِكَ وَالْمُقِيمِينَ الصَّلَاةَ وَالْمُؤْتُونَ الزَّكَاةَ وَالْمُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ أُولَٰئِكَ سَنُؤْتِيهِمْ أَجْرًا عَظِيمًا"
(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):
لَّٰكِن (Lākin): किन्तु, बल्कि।
الرَّاسِخُونَ (Ar-Rāsikhūna): जो मज़बूती से जमे हुए हैं।
فِي (Fī): में।
الْعِلْمِ (Al-ʿIlmi): ज्ञान।
مِنْهُمْ (Minhum): उनमें से।
وَالْمُؤْمِنُونَ (Wal-Mu'minūna): और ईमान वाले।
يُؤْمِنُونَ (Yu'minūna): ईमान लाते हैं।
بِمَا (Bimā): उस पर जो।
أُنزِلَ (Unzila): उतारा गया।
إِلَيْكَ (Ilayka): तुम्हारी ओर।
وَمَا (Wa Mā): और जो।
أُنزِلَ (Unzila): उतारा गया।
مِن قَبْلِكَ (Min Qablika): तुमसे पहले।
وَالْمُقِيمِينَ (Wal-Muqīmīna): और जो कायम करते हैं।
الصَّلَاةَ (Aṣ-Ṣalāta): नमाज़ को।
وَالْمُؤْتُونَ (Wal-Mu'tūna): और जो देते हैं।
الزَّكَاةَ (Az-Zakāta): ज़कात को।
وَالْمُؤْمِنُونَ (Wal-Mu'minūna): और जो ईमान लाते हैं।
بِاللَّهِ (Billāhi): अल्लाह पर।
وَالْيَوْمِ (Wal-Yawmi): और दिन पर।
الْآخِرِ (Al-Ākhiri): आख़िरत (प्रलय) के।
أُولَٰئِكَ (Ulā'ika): वे लोग।
سَنُؤْتِيهِمْ (Sanu'tīhim): हम देंगे उन्हें।
أَجْرًا (Ajran): प्रतिफल।
عَظِيمًا (ʿAẓīman): अत्यंत बड़ा।
(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:
यह आयत पिछली कई आयतों में चल रहे बनी इसराईल की आलोचना के बाद एक सकारात्मक और न्यायसंगत बयान देती है। अल्लाह तआला यह स्पष्ट करता है कि उसकी नाराज़गी हर यहूदी या ईसाई के लिए नहीं है, बल्कि केवल उन अवज्ञाकारियों और पापियों के लिए है जिनके कर्मों का जिक्र किया गया था। यह आयत उन लोगों के गुण बताती है जो अल्लाह की कृपा के पात्र हैं, चाहे वह किसी भी समुदाय से हों।
आयत का भावार्थ: "किन्तु उनमें से जो ज्ञान में मज़बूत हैं और (सच्चे) ईमान वाले, वह उस चीज़ पर ईमान लाते हैं जो आपकी ओर उतारी गई है और जो आपसे पहले उतारी गई थी, और नमाज़ की स्थापना करने वाले हैं, ज़कात अदा करने वाले हैं और अल्लाह तथा आख़िरत के दिन पर ईमान रखने वाले हैं; ये वे लोग हैं जिन्हें हम जल्द ही बहुत बड़ा प्रतिफल प्रदान करेंगे।"
(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):
यह आयत सच्चे मोमिन और विद्वान की पहचान बताती है, जिसमें अहले-किताब के नेक लोग भी शामिल हैं।
सच्चे ईमान वालों के गुण:
रासिखूना फिल इल्म (ज्ञान में मजबूत): ये वे लोग हैं जो गहन ज्ञान रखते हैं और सतही ज्ञान पर संतुष्ट नहीं होते। उनका ज्ञान उन्हें सच्चाई तक पहुंचाता है, न कि हठधर्मिता की ओर ले जाता है। ऐसे ही यहूदी और ईसाई विद्वानों ने सच्चाई को पहचाना और हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर ईमान ले आए।
ईमान बिल्लाज़ी उंज़िला इलैका व मा उंज़िला मिन कब्लिक (तुम पर और तुमसे पहले उतारी गई किताबों पर ईमान): यह सच्चे ईमान की पहचान है। ये लोग चुनिंदा ईमान नहीं रखते। वह कुरआन पर भी ईमान रखते हैं और उससे पहले की सभी अल्लाह की किताबों (तौरात, इंजील) पर भी, क्योंकि सबका स्रोत एक ही अल्लाह है।
मुकीमिस्सलात (नमाज़ कायम करने वाले): उनका ईमान सिर्फ दावा नहीं है, बल्कि अमल में दिखता है। वह नमाज़ की पाबंदी करते हैं, जो अल्लाह के सामने झुकने और आज्ञा मानने का सबसे बड़ा प्रतीक है।
मुतूनज़्ज़कात (ज़कात अदा करने वाले): वह अपने माल में से ज़कात देकर समाज के गरीबों का हक अदा करते हैं और अपनी आर्थिक पवित्रता साबित करते हैं।
मु'मिनूना बिल्लाहि वल यौमिल आखिर (अल्लाह और आखिरत के दिन पर ईमान रखने वाले): यह उनके ईमान का मूल आधार है। अल्लाह पर ईमान और आखिरत के दिन की जवाबदेही का एहसास ही उन्हें इन सभी अच्छे कामों के लिए प्रेरित करता है।
इनाम: "उलाइका सनुतीहिम अज्रन अज़ीमा"
ऐसे लोगों के लिए अल्लाह ने एक "अज़ीम अज्र" (बहुत बड़ा प्रतिफल) तैयार कर रखा है, जो जन्नत की शक्ल में होगा और अल्लाह की रज़ामंदी की शक्ल में।
(5) शिक्षा और सबक (Lesson):
न्यायसंगत दृष्टिकोण: किसी पूरे समुदाय को बदनाम नहीं करना चाहिए। हर समुदाय में अच्छे और बुरे लोग होते हैं। अल्लाह की नज़र में इंसान की पहचान उसके कर्म और ईमान से है, न कि उसकी जाति या समुदाय से।
ईमान की पूर्णता: सच्चा ईमान अल्लाह की सभी किताबों और सभी पैगम्बरों पर विश्वास करता है।
ज्ञान और अमल का संगम: सच्चा ज्ञान इंसान को अमल की ओर ले जाता है। जो जानता है, वही सही ढंग से इबादत और समाज सेवा कर सकता है।
(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):
अतीत (Past) में: यह आयत उन यहूदी और ईसाई विद्वानों के लिए मार्गदर्शन और प्रोत्साहन थी जो सच्चाई की तलाश में थे, जैसे अब्दुल्लाह बिन सलाम (रज़ियल्लाहु अन्हु)। साथ ही, यह मुसलमानों को सिखाती थी कि अहले-किताब के सभी लोग एक जैसे नहीं हैं।
समकालीन वर्तमान (Contemporary Present) में: आज यह आयत बेहद प्रासंगिक है।
अंतर-धार्मिक संबंध: आज जब इस्लाम को लेकर दुनिया में गलतफहमियां फैलाई जा रही हैं, यह आयत हमें सिखाती है कि अहले-किताब के नेक लोगों का सम्मान करो और उनके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करो।
सच्चे ज्ञान की तलाश: आज का दौर सूचनाओं का दौर है, लेकिन गहन ज्ञान (रसूख) की कमी है। यह आयत हमें "रासिखून फिल इल्म" बनने की प्रेरणा देती है।
व्यापक इस्लामी पहचान: यह आयत हमें याद दिलाती है कि एक मुसलमान की पहचान सिर्फ नमाज़ और रोज़े में ही नहीं, बल्कि ज़कात देने, अल्लाह और आखिरत पर यकीन रखने और सभी पैगम्बरों का सम्मान करने में है।
भविष्य (Future) में: जब तक दुनिया में अलग-अलग धर्म और विश्वास रहेंगे, यह आयत मुसलमानों के लिए सहिष्णुता, न्याय और सच्चाई की कसौटी बनी रहेगी। यह भविष्य की हर पीढ़ी को सिखाती रहेगी कि अल्लाह की नज़र में इंसान की हैसियत उसके ईमान और अमल से है, और हर समुदाय के नेक लोग अल्लाह की कृपा और बड़े इनाम के हकदार हैं।
निष्कर्ष: सूरह अन-निसा की यह आयत एक संतुलित और न्यायसंगत दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। यह बुराइयों की आलोचना करने के बाद भी अच्छाइयों को स्वीकार करती है। यह हमें सिखाती है कि सच्चा ईमान, गहरा ज्ञान, नियमित इबादत, सामाजिक जिम्मेदारी और आखिरत पर विश्वास – ये वे गुण हैं जो किसी भी इंसान को अल्लाह के करीब ले जाते हैं और उसे एक "अज़ीम अज्र" (महान प्रतिफल) का हकदार बनाते हैं।