(1) पूरी आयत अरबी में:
"إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا وَصَدُّوا عَن سَبِيلِ اللَّهِ قَدْ ضَلُّوا ضَلَالًا بَعِيدًا"
(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):
إِنَّ (Inna): निश्चित रूप से।
الَّذِينَ (Alladhīna): वे लोग जो।
كَفَرُوا (Kafarū): कुफ्र करते हैं (इनकार करते हैं)।
وَصَدُّوا (Wa Ṣaddū): और रोकते हैं।
عَن (ʿAn): से।
سَبِيلِ (Sabīli): मार्ग।
اللَّهِ (Allāhi): अल्लाह के।
قَدْ (Qad): निश्चित ही।
ضَلُّوا (Ḍallū): भटक गए।
ضَلَالًا (Ḍalālan): भटकाव।
بَعِيدًا (Baʿīdan): बहुत दूर का, अत्यधिक।
(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:
यह आयत पिछली आयत (4:166) का सीधा और तार्किक परिणाम बताती है। आयत 166 में अल्लाह ने कुरआन की सच्चाई पर स्वयं अपनी गवाही देकर सारे संदेहों को दूर कर दिया। अब यह आयत उन लोगों के भयानक परिणाम की घोषणा करती है जो इस स्पष्ट सत्य के बाद भी इनकार करते हैं और दूसरों को भी सत्य के मार्ग से रोकते हैं।
आयत का भावार्थ: "निश्चित रूप से जो लोग कुफ्र करते हैं और (दूसरों को) अल्लाह के मार्ग से रोकते हैं, वे बहुत दूर भटक गए हैं।"
(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):
यह आयत बहुत संक्षिप्त है लेकिन इसमें एक गहरा और डरावना अर्थ छुपा है। यह उन लोगों की वास्तविक स्थिति को बयान करती है जो सत्य को अस्वीकार करने पर अड़े रहते हैं।
दोहरा अपराध:
कुफ्र करना (कफरू): यह मूल पाप है। अल्लाह की आयतों, उसके पैगम्बर और उसके दीन का इनकार करना। पिछली आयत में अल्लाह ने कुरआन की सच्चाई पर अपनी गवाही दे दी, इसके बाद कुफ्र करना अल्लाह के खिलाफ सीधी चुनौती है।
रोकना (सद्दू): यह दूसरों के साथ किया जाने वाला अत्याचार है। सिर्फ खुद कुफ्र करना ही काफी नहीं, बल्कि दूसरे लोगों को भी ईमान और हिदायत के रास्ते में रोकना। यह अल्लाह की रहमत के दरवाजे बंद करने जैसा है।
परिणाम: "कद दल्लू दलालन बईदा" (निश्चित ही वे बहुत दूर भटक गए हैं)
"दलाल" का मतलब है पथभ्रष्टता, गुमराही।
"बईद" शब्द इस गुमराही की गहराई और दूरी को दर्शाता है। यह कोई छोटी-मोटी गलती नहीं है। यह ऐसी गुमराही है जो इंसान को सत्य से इतना दूर ले जाती है कि वापसी का रास्ता लगभग नामुमकिन हो जाता है।
वे सिर्फ रास्ता भूलने वाले मुसाफिर नहीं हैं, बल्कि वे सही मंजिल की दिशा ही भूल चुके हैं और उल्टी दिशा में दौड़े जा रहे हैं।
(5) शिक्षा और सबक (Lesson):
कुफ्र एक भयानक बीमारी है: ईमान न लाना सिर्फ एक अलग "राय" नहीं है, बल्कि एक ऐसी गुमराही है जो इंसान को उसके मकसद (अल्लाह की इबादत) से कोसों दूर ले जाती है।
दूसरों को गुमराह करना बड़ा पाप: सिर्फ अपने गुनाह पर ही नहीं, बल्कि दूसरों को सही रास्ते से रोकने पर भी सख्त सजा है। इस्लाम की दावत देना हमारा फर्ज है, लेकिन लोगों को जबरदस्ती रोकना सख्त मना है।
स्पष्ट सत्य के बाद कोई बहाना नहीं: जब अल्लाह ने कुरआन जैसी स्पष्ट हिदायत भेज दी और खुद उसकी गवाही दे दी, तो ईमान न लाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता। ऐसा करने वाला अपने आप को गहरी गुमराही में धकेल रहा है।
(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):
अतीत (Past) में: यह आयत मक्का के काफिरों और मदीना के मुनाफिकों (पाखंडियों) पर सीधे लागू होती थी, जो न सिर्फ खुद ईमान नहीं लाते थे बल्कि दूसरों को भी इस्लाम अपनाने से रोकते थे।
समकालीन वर्तमान (Contemporary Present) में: आज यह आयत बेहद प्रासंगिक है।
सक्रिय विरोधी: आज कुछ लोग और संगठन सिर्फ इस्लाम न मानने तक सीमित नहीं हैं, बल्कि सक्रिय रूप से इस्लाम की शिक्षाओं का मजाक उड़ाते हैं, पैगम्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का अपमान करते हैं और लोगों को इस्लाम से दूर रहने की सलाह देते हैं। यह आयत ठीक उन्हीं के बारे में है।
मीडिया और प्रोपेगेंडा: आज मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से इस्लाम के खिलाफ जहर फैलाकर लोगों को "सबीलिल्लाह" (अल्लाह के रास्ते) से रोका जा रहा है। यह आधुनिक रूप में "सद्दू अन सबीलिल्लाह" (रोकना) है।
पारिवारिक और सामाजिक दबाव: कई जगहों पर परिवार वाले ही अपने बच्चों या रिश्तेदारों को इस्लाम पर अमल करने (जैसे हिजाब करने, दाढ़ी रखने) से रोकते हैं। यह भी एक प्रकार का "रोकना" ही है।
भविष्य (Future) में: जब तक कयामत आएगी, सत्य और असत्य का संघर्ष जारी रहेगा। लोग सत्य का इनकार करते रहेंगे और दूसरों को उससे रोकते रहेंगे। यह आयत भविष्य की हर पीढ़ी के लिए एक स्थायी चेतावनी बनी रहेगी कि सत्य को अस्वीकार करना और दूसरों को उससे रोकना, इंसान को "दलालन बईदा" (अत्यधिक गुमराही) की ओर ले जाता है, जिसका अंत बहुत बुरा होता है। यह आयत हमें सिखाती रहेगी कि हम खुद भी सत्य को थामें और दूसरों को उससे रोकने वालों से सावधान रहें।
निष्कर्ष: यह आयत हमें कुफ्र और उसके सामाजिक प्रभाव (दूसरों को रोकना) की गंभीरता से अवगत कराती है। यह कोई हल्का मामला नहीं है। यह एक ऐसी गहरी गुमराही है जो इंसान को उसके रब और उसकी मंजिल (जन्नत) से बहुत दूर ले जाती है। एक मुसलमान का फर्ज है कि वह खुद इस गुमराही से बचे और दूसरों को भी सत्य के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करे, न कि रोके।