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कुरआन की आयत 4:168 की पूर्ण व्याख्या

 (1) पूरी आयत अरबी में:

"إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا وَظَلَمُوا لَمْ يَكُنِ اللَّهُ لِيَغْفِرَ لَهُمْ وَلَا لِيَهْدِيَهُمْ طَرِيقًا"

(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):

  • إِنَّ (Inna): निश्चित रूप से।

  • الَّذِينَ (Alladhīna): वे लोग जो।

  • كَفَرُوا (Kafarū): कुफ्र किया (इनकार किया)।

  • وَظَلَمُوا (Wa Ẓalamū): और ज़ुल्म किया (अत्याचार किया)।

  • لَمْ يَكُنِ (Lam Yakun): नहीं था, नहीं है।

  • اللَّهُ (Allāhu): अल्लाह।

  • لِيَغْفِرَ (Liyaghfira): कि वह माफ़ करे।

  • لَهُمْ (Lahum): उन्हें।

  • وَلَا (Wa lā): और न ही।

  • لِيَهْدِيَهُمْ (Liyahdiyahum): कि वह मार्गदर्शन करे।

  • طَرِيقًا (Ṭarīqan): कोई रास्ता।

(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:

यह आयत पिछली आयत (4:167) का ही सीधा विस्तार और उसका भयानक निष्कर्ष है। पिछली आयत में उन लोगों की स्थिति बताई गई थी जो कुफ्र करते हैं और दूसरों को अल्लाह के रास्ते से रोकते हैं। अब यह आयत बताती है कि ऐसे लोगों के लिए अल्लाह की ओर से क्या फैसला है।

आयत का भावार्थ: "निश्चित रूप से जिन लोगों ने कुफ्र किया और ज़ुल्म किया, अल्लाह उन्हें कभी माफ़ नहीं करेगा और न ही उन्हें कोई (सही) रास्ता दिखाएगा।"

(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):

यह आयत एक बहुत ही गंभीर चेतावनी है और इसके अर्थ को ठीक से समझना जरूरी है।

  • "अल्लाजीना कफरू व ज़लमू" (जिन लोगों ने कुफ्र किया और ज़ुल्म किया):

    • यहाँ "ज़ुल्म" का अर्थ सिर्फ सामाजिक अत्याचार नहीं है। इस्लामी शब्दावली में सबसे बड़ा ज़ुल्म है शिर्क – अल्लाह के साथ किसी को साझी ठहराना।

    • इस आयत में "कुफ्र" और "ज़ुल्म" एक दूसरे के पूरक हैं। यहाँ 'ज़ुल्म' से तात्पर्य उसी कुफ्र से है, क्योंकि अल्लाह के हक को न मानना सबसे बड़ा अत्याचार है। ये वे लोग हैं जो सत्य को जानते-समझते हुए भी उसका इनकार करते हैं और दूसरों को भी रोकते हैं।

  • "लम यकुनिल्लाहु लियगफिरा लहुम" (अल्लाह उन्हें कभी माफ नहीं करेगा):

    • यह एक बहुत ही सख्त और स्पष्ट बयान है। इसका यह मतलब नहीं है कि अल्लाह की रहमत सीमित है। बल्कि, इसका मतलब यह है कि जब तक इंसान दुनिया में है, अगर वह अपने इस घोर पाप (कुफ्र) पर अड़ा रहेगा और तौबा (पश्चाताप) नहीं करेगा, तो अल्लाह उसे माफ नहीं करेगा।

    • शिर्क एक ऐसा पाप है जिसे अल्लाह तौबा के बिना माफ नहीं करता, जैसा कि सूरह अन-निसा की आयत 48 और 116 में स्पष्ट किया गया है।

  • "व ला लियहदियहुम तरीका" (और न ही उन्हें कोई रास्ता दिखाएगा):

    • जो लोग सत्य को जानबूझकर ठुकरा देते हैं, अल्लाह उनके दिलों पर मुहर लगा देता है। उनकी अक्ल और समझ को काम करना बंद कर देता है।

    • वह उन्हें जन्नत या सफलता का कोई रास्ता नहीं दिखाएगा। उनकी गुमराही में और इजाफा होता जाएगा।

(5) शिक्षा और सबक (Lesson):

  1. शिर्क सबसे बड़ा पाप: अल्लाह के साथ किसी को साझी ठहराना (शिर्क) एक ऐसा जघन्य अपराध है जिसकी माफ़ी तौबा के बिना संभव नहीं है।

  2. तौबा का दरवाजा खुला है: यह आयत उन लोगों के लिए है जो कुफ्र की हालत में ही मर जाते हैं। जब तक इंसान जीवित है, तौबा का दरवाजा खुला है। अगर कोई काफिर या मुश्रिक सच्चे दिल से तौबा करके ईमान ले आए, तो अल्लाह उसके सारे पाप माफ कर देता है।

  3. सत्य को ठुकराने के परिणाम: जानबूझकर सत्य का इनकार करना इंसान को अल्लाह की रहमत और हिदायत से महरूम कर देता है।

(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):

  • अतीत (Past) में: यह आयत उन काफिरों और मुनाफिकों (पाखंडियों) के लिए एक स्पष्ट चेतावनी थी जो पैगम्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और कुरआन के सत्य होने के बावजूद उसका इनकार करते थे।

  • समकालीन वर्तमान (Contemporary Present) में: आज यह आयत बेहद प्रासंगिक है।

    • शिर्क से चेतावनी: आज भी लोग अल्लाह के साथ दूसरों को साझी ठहराते हैं, जैसे किसी पीर-फकीर, मज़ार, मूर्ति या प्रकृति को पूजना। यह आयत ऐसे सभी लोगों के लिए एक स्पष्ट चेतावनी है कि शिर्क एक अक्षम्य पाप है।

    • हठधर्मिता का परिणाम: जो लोग अहंकारवश या हठ के कारण इस्लाम को स्वीकार नहीं करते, भले ही उनके सामने सच्चाई स्पष्ट हो, उनके लिए यह आयत एक डरावनी चेतावनी है।

    • प्रोपेगेंडा फैलाने वाले: जो लोग जान-बूझकर इस्लाम के खिलाफ झूठा प्रचार करके लोगों को हिदायत से रोकते हैं, वे इस आयत के दायरे में आते हैं।

  • भविष्य (Future) में: जब तक दुनिया कायम है, शिर्क और कुफ्र का अस्तित्व बना रहेगा। यह आयत कयामत तक सभी लोगों के लिए एक स्थायी चेतावनी बनी रहेगी कि अल्लाह के साथ किसी को साझी ठहराना और सत्य को जानबूझकर ठुकराना, अल्लाह की माफ़ी और मार्गदर्शन से वंचित होने का सबसे बड़ा कारण है। यह आयत हमेशा लोगों को तौबा और ईमान की ओर बुलाती रहेगी।

निष्कर्ष: यह आयत हमें सबसे बड़े पाप (शिर्क और दृढ़ कुफ्र) के भयानक परिणाम से अवगत कराती है। यह अल्लाह की न्यायप्रियता को दर्शाती है। हालाँकि, यह चेतावनी हमें निराश नहीं करती, बल्कि हमें सचेत करती है कि हम इस गंभीर पाप से बचें और अल्लाह की ओर से पेश की गई तौबा और माफी के अवसर का लाभ उठाएं। यह आयत हमें अपने अकीदे (विश्वास) की शुद्धता पर ध्यान देने और किसी भी प्रकार के शिर्क से दूर रहने की प्रेरणा देती है।