(1) पूरी आयत अरबी में:
"فَأَمَّا الَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ فَيُوَفِّيهِمْ أُجُورَهُمْ وَيَزِيدُهُم مِّن فَضْلِهِ ۖ وَأَمَّا الَّذِينَ اسْتَنكَفُوا وَاسْتَكْبَرُوا فَيُعَذِّبُهُمْ عَذَابًا أَلِيمًا وَلَا يَجِدُونَ لَهُم مِّن دُونِ اللَّهِ وَلِيًّا وَلَا نَصِيرًا"
(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):
فَأَمَّا (Fa-ammā): तो जो।
الَّذِينَ (Alladhīna): लोग।
آمَنُوا (Āmanū): ईमान लाए।
وَعَمِلُوا (Wa ʿamilū): और अमल किया।
الصَّالِحَاتِ (Aṣ-ṣāliḥāti): नेक अमलों का।
فَيُوَفِّيهِمْ (Fa-yuwaffīhim): तो वह पूरा देगा उन्हें।
أُجُورَهُمْ (Ujūrahum): उनके प्रतिफल।
وَيَزِيدُهُمْ (Wa yazīduhum): और बढ़ा देगा उन्हें।
مِّن (Min): में से।
فَضْلِهِ (Faḍlihi): अपने फज़ल (अनुग्रह) से।
وَأَمَّا (Wa ammā): और जो।
الَّذِينَ (Alladhīna): लोग।
اسْتَنكَفُوا (Istankafū): इनकार किया, घृणा की।
وَاسْتَكْبَرُوا (Wastakbarū): और घमंड किया।
فَيُعَذِّبُهُمْ (Fa-yuʿadhdhibuhum): तो वह यातना देगा उन्हें।
عَذَابًا (ʿAdhāban): यातना।
أَلِيمًا (Alīman): दर्दनाक।
وَلَا (Wa lā): और नहीं।
يَجِدُونَ (Yajidūna): पाएंगे।
لَهُم (Lahum): अपने लिए।
مِّن (Min): से।
دُونِ (Dūni): सिवाय।
اللَّهِ (Allāhi): अल्लाह के।
وَلِيًّا (Waliyyan): कोई रक्षक/मददगार।
وَلَا (Wa lā): और नहीं।
نَصِيرًا (Naṣīran): कोई सहायक।
(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:
यह आयत पिछली आयतों (171-172) का अंतिम और पूर्ण निष्कर्ष प्रस्तुत करती है, जहाँ अहले-किताब (विशेषकर ईसाई) को उनकी गलत मान्यताओं (त्रित्व, ईसा को अल्लाह का बेटा मानना) से रोका गया था और उन्हें समझाया गया था कि ईसा और फ़रिश्ते अल्लाह की बन्दगी में कोई घमंड नहीं करते। अब यह आयत दोनों समूहों - ईमान वालों और इनकार व घमंड करने वालों - के अंतिम परिणाम की घोषणा करती है।
आयत का भावार्थ: "तो जिन लोगों ने ईमान लाया और नेक अमल किए, वह उन्हें उनका पूरा-पूरा प्रतिफल देगा और उन्हें अपने अनुग्रह से और अधिक देगा। और जिन लोगों ने इनकार किया और घमंड किया, वह उन्हें दर्दनाक यातना देगा और वह अल्लाह के सिवा न तो कोई रक्षक पाएंगे और न ही कोई सहायक।"
(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):
यह आयत दो अलग-अलग रास्तों और उनके परिणामों को बहुत ही स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करती है।
1. ईमान और नेक अमल वालों के लिए इनाम:
"फ़युवाफ्फीहिम उजूरहुम" - अल्लाह उनके अच्छे कर्मों का पूरा-पूरा बदला देगा। एक नेकी का बदला दस गुना से लेकर सात सौ गुना तक या उससे भी अधिक बढ़ा-चढ़ाकर दिया जाएगा।
"व यज़ीदुहुम मिन फज़लिहि" - और उसके बाद भी अल्लाह उन्हें अपने फज़ल (विशेष अनुग्रह) से और अधिक देगा। यह 'ज़ियादत' उनके मोल-भाव के बदले से ऊपर की चीज़ है। यह अल्लाह की विशेष दया है, जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता, जैसे अल्लाह को देखना, उसकी रज़ामंदी, और जन्नत में ऐसी नेमतें जिनका किसी आँख ने कभी सपना भी नहीं देखा।
2. इनकार और घमंड करने वालों के लिए सजा:
"फ़युअज़्ज़िबुहुम अज़ाबन अलीमा" - उन्हें एक दर्दनाक यातना दी जाएगी। यह यातना शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से बेहद पीड़ादायक होगी।
"व ला यजिदूना लहुम मिन दूनिल्लाहि वलीयव व ला नसीरा" - और वह अल्लाह के सिवा न तो कोई रक्षक (वली) पाएंगे और न ही कोई सहायक (नसीर)।
वली: वह जो उनकी हिफाज़त करे, उनका पक्ष ले।
नसीर: वह जो उन्हें उस यातना से बचा सके।
उनके झूठे देवता (ईसा, उज़ैर, मूर्तियाँ) उनकी कोई मदद नहीं कर पाएंगे। न कोई शफाअत (सिफारिश) काम आएगी और न कोई छूट।
(5) शिक्षा और सबक (Lesson):
ईमान और अमल का महत्व: सच्चा ईमान और नेक अमल ही आखिरत में सफलता की कुंजी है। इसका बदला सिर्फ न्यायसंगत नहीं, बल्कि अल्लाह के अनंत अनुग्रह से भरपूर है।
घमंड और इनकार का दुष्परिणाम: अल्लाह और उसके दीन से घमंडपूर्ण इनकार सबसे बड़ी मूर्खता है, जिसका परिणाम अकेलेपन और दर्दनाक सजा के रूप में भुगतना पड़ेगा।
अल्लाह ही एकमात्र सहारा: आखिरत के दिन हर इंसान अकेला होगा। उस दिन अल्लाह के सिवा कोई सहारा नहीं होगा। इसलिए दुनिया में ही उसी को अपना एकमात्र रक्षक और सहायक मान लेना चाहिए।
(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):
अतीत (Past) में: यह आयत मक्का-मदीना के काफिरों और अहले-किताब के लिए एक स्पष्ट चेतावनी और आश्वासन थी। यह उनके सामने दो रास्ते रखती थी और उनके परिणाम बताती थी।
समकालीन वर्तमान (Contemporary Present) में: आज यह आयत बेहद प्रासंगिक है।
आशा और Motivation: आज के मुसलमान जो दीन पर अमल करते हुए मुश्किलों का सामना कर रहे हैं, उनके लिए यह आयत एक बहुत बड़ी आशा और प्रेरणा है। यह बताती है कि उनकी एक छोटी सी नेकी भी बर्बाद नहीं जाएगी, बल्कि उसे बढ़ा-चढ़ाकर पुरस्कृत किया जाएगा।
घमंडी समाज के लिए चेतावनी: आज का मानव समाज विज्ञान, धन और शक्ति के घमंड में अल्लाह और आखिरत को भूल चुका है। यह आयत उन सभी के लिए एक स्पष्ट चेतावनी है।
झूठे सहारों से निराशा: लोग दुनिया में पैसे, हैसियत, नेताओं और ताकतवर लोगों को अपना सहारा समझते हैं। यह आयत बताती है कि आखिरत के दिन ये सभी सहारे बेकार हो जाएंगे।
भविष्य (Future) में: जब तक इंसान ईमान और कुफ्र के बीच चुनाव करता रहेगा, यह आयत प्रासंगिक बनी रहेगी। यह कयामत तक सभी मनुष्यों के लिए एक स्थायी मार्गदर्शक सिद्धांत है कि ईमान और नेकी का रास्ता अनंत पुरस्कार की ओर ले जाता है, जबकि घमंड और इनकार का रास्ता अकेली और दर्दनाक सजा की ओर।
निष्कर्ष: यह आयत मानव जीवन के सबसे बड़े सत्य को संक्षेप में प्रस्तुत करती है। यह हमें बताती है कि हमारे कर्मों का लेखा-जोखा होगा और हर किसी को उसके किए का पूरा बदला मिलेगा। यह आयत हमें ईमान और अच्छे कर्मों के लिए प्रोत्साहित करती है और कुफ्र व घमंड से डराती है। यह हमें याद दिलाती है कि अल्लाह की दया ईमान वालों के लिए अनंत है, लेकिन उसकी सजा से बचने का कोई रास्ता नहीं है। इसलिए, बुद्धिमानी इसी में है कि हम ईमान और नेकी का रास्ता चुनें।