Read Quran translation in Hindi with verse-by-verse meaning and time-relevant explanations for deeper understanding.

कुरआन की आयत 4:34 की पूर्ण व्याख्या

 

1. आयत का अरबी पाठ (Arabic Text)

ٱلرِّجَالُ قَوَّٰمُونَ عَلَى ٱلنِّسَآءِ بِمَا فَضَّلَ ٱللَّهُ بَعْضَهُمْ عَلَىٰ بَعْضٍ وَبِمَآ أَنفَقُوا۟ مِنْ أَمْوَٰلِهِمْ ۚ فَٱلصَّٰلِحَٰتُ قَٰنِتَٰتٌ حَٰفِظَٰتٌ لِّلْغَيْبِ بِمَا حَفِظَ ٱللَّهُ ۚ وَٱلَّٰتِى تَخَافُونَ نُشُوزَهُنَّ فَعِظُوهُنَّ وَٱهْجُرُوهُنَّ فِى ٱلْمَضَاجِعِ وَٱضْرِبُوهُنَّ ۖ فَإِنْ أَطَعْنَكُمْ فَلَا تَبْغُوا۟ عَلَيْهِنَّ سَبِيلًا ۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيًّا كَبِيرًا


2. आयत का हिंदी अर्थ (Meaning in Hindi)

"पुरुष स्त्रियों के रक्षक और प्रबंधक (क़व्वाम) हैं, उस कारण से कि अल्लाह ने एक को दूसरे पर श्रेष्ठता दी है और इस कारण से कि पुरुष अपने धन से (परिवार का) खर्च चलाते हैं। इसलिए जो स्त्रियाँ अच्छे चरित्र वाली हैं, वे आज्ञाकारिणी हैं और अल्लाह की निगाह में उनकी (पतियों की) अनुपस्थिति में (उनके अधिकारों और अपनी इज़्ज़त की) रक्षा करने वाली हैं। और जिन स्त्रियों के विद्रोह (नशूज़) का तुम्हें भय हो, उन्हें समझाओ, (यदि न मानें तो) उनके साथ बिस्तर अलग करो और (यदि फिर भी न मानें तो उन्हें) हल्के से मारो (सज़ा दो)। फिर यदि वे तुम्हारी बात मान लें, तो उनके विरुद्ध कोई रास्ता (अत्याचार का) न तलाशो। निश्चित ही अल्लाह सर्वोच्च, महान है।"


3. आयत से मिलने वाला सबक (Lesson from the Verse)

  1. जिम्मेदारी का सिद्धांत: आयत पुरुष को परिवार का "क़व्वाम" (रक्षक, प्रबंधक, जिम्मेदार) नियुक्त करती है। यह एक जिम्मेदारी (burden of responsibility) है, वर्चस्व (domination) का अधिकार नहीं। इस जिम्मेदारी का आधार पुरुष की आर्थिक भूमिका और अल्लाह द्वारा प्रदत्त कुछ योग्यताएँ हैं।

  2. स्त्री की गरिमा और भूमिका: आयत पत्नी की भूमिका को "सालेहात" (अच्छे चरित्र वाली), "कानितात" (आज्ञाकारिणी - अल्लाह की) और "हाफिज़ात" (रक्षक - अपनी और पति की इज्ज़त की) के रूप में परिभाषित करती है। यह एक सक्रिय, गरिमामय और जिम्मेदारीपूर्ण भूमिका है।

  3. विवाद समाधान का क्रमबद्ध तरीका: आयत पारिवारिक विवादों के समाधान के लिए एक क्रमबद्ध प्रक्रिया (graduated approach) बताती है:

    • पहला चरण: बातचीत और समझाइश ("उइज़ूहुन्ना")

    • दूसरा चरण: अस्थायी अलगाव ("वहजुरूहुन्ना फिल मदाजिइ" - बिस्तर अलग करना, एक प्रकार की psychological distance)

    • तीसरा चरण: प्रतीकात्मक दंड ("वदरिबूहुन्ना" - जिसकी व्याख्या बहुत ही सीमित, गैर-नुकसानदेह और प्रतीकात्मक रूप में की गई है)

  4. सीमाएँ और निषेध: आयत का अंतिम भाग स्पष्ट करता है कि अगर पत्नी मान जाए, तो उसके खिलाफ कोई और कार्रवाई ("सबील") जायज़ नहीं है। यह दुर्व्यवहार के दरवाजे को बंद कर देता है।


4. प्रासंगिकता: अतीत, वर्तमान और भविष्य (Relevance: Past, Present & Future)

अतीत में प्रासंगिकता (Past Relevance):

  • सीमित सुधार: 7वीं सदी के अरब में, जहाँ महिलाओं को संपत्ति नहीं समझा जाता था और उनके साथ मनमाना व्यवहार किया जाता था, यह आयत एक सीमित सुधार (limited reform) थी। इसने पुरुष की मनमानी पर रोक लगाई और विवाद समाधान का एक ढाँचा दिया।

  • महिला की सुरक्षा: "क़व्वाम" की अवधारणा ने महिलाओं को आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा प्रदान की, जो उस युग में एक बड़ी आवश्यकता थी।

वर्तमान में प्रासंगिकता (Present Relevance):

  • गलतफहमी और दुरुपयोग: यह आयत सबसे अधिक विवाद और दुरुपयोग का शिकार हुई है। कई पुरुष "क़व्वाम" की गलत व्याख्या करके तानाशाही करते हैं और "दरब" शब्द का इस्तेमाल महिलाओं के खिलाफ हिंसा को जायज़ ठहराने के लिए करते हैं। यह दृष्टिकोण पूरी तरह से गलत और इस्लाम के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है।

  • आधुनिक पुनर्व्याख्या: आज के संदर्भ में, जहाँ महिलाएँ शिक्षित और आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं, "क़व्वाम" की अवधारणा को "जिम्मेदारी की साझेदारी" के रूप में देखा जा सकता है, न कि वर्चस्व के रूप में। पैगंबर मुहम्मद (स.अ.व.) ने कभी भी किसी महिला को नहीं मारा और उन्होंने सबसे अच्छे व्यवहार की शिक्षा दी। इसलिए, "दरब" की व्याख्या एक अंतिम, प्रतीकात्मक और गैर-हानिकारक कार्रवाई के रूप में की जानी चाहिए, जिसका लक्ष्य समस्या को हल करना है, न कि चोट पहुँचाना। कई आधुनिक विद्वान इसे एक पूरी तरह से गैर-शारीरिक कार्रवाई (जैसे, रूठ जाना या मनोवैज्ञानिक दूरी) के रूप में भी व्याख्या करते हैं।

  • संचार और समझौते पर जोर: आयत द्वारा सुझाए गए पहले दो चरण (बातचीत और अस्थायी अलगाव) आज भी पारिवारिक परामर्श और संघर्ष समाधान के बेहतरीन तरीके हैं।

भविष्य में प्रासंगिकता (Future Relevance):

  • सिद्धांतों की प्रासंगिकता: भविष्य के समाज में, इस आयत के मूल सिद्धांत - जिम्मेदारी, परस्पर सम्मान, और क्रमबद्ध संघर्ष समाधान - सदैव प्रासंगिक रहेंगे।

  • नैतिक दिशानिर्देश: आयत पारिवारिक जीवन के लिए एक नैतिक दिशानिर्देश देती है, भले ही उसकी विशिष्ट शब्दावली एक विशेष ऐतिहासिक संदर्भ से आती हो। भविष्य की पीढ़ियों को इसके सार (essence) को समझना चाहिए, न कि शाब्दिक अर्थ से चिपके रहना चाहिए।

  • लैंगिक न्याय की ओर बढ़त: जैसे-जैसे समाज और अधिक न्यायसंगत और समतावादी होता जाएगा, इस आयत की व्याख्या भी उसी के अनुरूप विकसित होगी, जिसमें पारस्परिक सम्मान और साझेदारी को केंद्र में रखा जाएगा।

निष्कर्ष:
कुरआन की आयत 4:34 एक जटिल आयत है जिसके ऐतिहासिक संदर्भ और आधुनिक व्याख्या के बीच एक संवाद की आवश्यकता है। यह अतीत में एक सीमित सुधार थी, वर्तमान में एक गहन विचार की माँग करती है, और भविष्य के लिए पारिवारिक जीवन के सिद्धांतों का एक सेट प्रस्तुत करती है। किसी भी स्थिति में, इसका उपयोग महिलाओं के खिलाफ हिंसा या अत्याचार को सही ठहराने के लिए नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह इस्लाम की मूल भावना के विपरीत है।