﴿وَإِنَّ مِنكُمْ لَمَن لَّيُبَطِّئَنَّ فَإِنْ أَصَابَتْكُم مُّصِيبَةٌ قَالَ قَدْ أَنْعَمَ ٱللَّهُ عَلَىَّ إِذْ لَمْ أَكُن مَّعَهُمْ شَهِيدًا﴾
(अरबी आयत)
शब्दार्थ (Meaning of Words):
وَإِنَّ مِنكُمْ: और निश्चित रूप से तुममें से कुछ लोग
لَمَن لَّيُبَطِّئَنَّ: ऐसे हैं जो अवश्य ही (चलने में) सुस्ती दिखाएँगे
فَإِنْ أَصَابَتْكُم: फिर यदि पहुँच जाए तुम्हें
مُّصِيبَةٌ: कोई मुसीबत (हानि, पराजय)
قَالَ: कहता है
قَدْ أَنْعَمَ ٱللَّهُ عَلَىَّ: निश्चय ही अल्लाह ने मुझ पर एहसान किया
إِذْ: जब कि
لَمْ أَكُن: मैं नहीं था
مَّعَهُمْ: उनके साथ
شَهِيدًا: मौजूद (हाज़िर)
सरल अर्थ (Simple Meaning):
"और निश्चित रूप से तुममें से कुछ ऐसे लोग हैं जो (धर्मयुद्ध से निकलने में) अवश्य ही सुस्ती दिखाएँगे। फिर यदि तुम्हें कोई मुसीबत (हानि या पराजय) पहुँचती है, तो वह कहता है: 'वास्तव में अल्लाह ने मुझ पर एहसान किया कि मैं उनके साथ मौजूद नहीं था।'"
आयत का सन्देश और शिक्षा (Lesson from the Verse):
यह आयत मुनाफिकों (पाखंडियों) के एक और खतरनाक चरित्र को उजागर करती है:
कर्तव्य से भागने की मानसिकता: ये लोग समाज के सामूहिक कर्तव्य (इस संदर्भ में धर्मयुद्ध) से बचने के लिए जानबूझकर सुस्ती और आलस्य दिखाते हैं। वे हमेशा अपनी जान और आराम को सबसे ऊपर रखते हैं।
संकट के समय स्वार्थी प्रतिक्रिया: जब उनके भाइयों को मुसीबत का सामना करना पड़ता है, तो ये लोग उस दुख को अपने लिए 'अल्लाह का एहसान' बताते हैं। उन्हें अपने साथियों की क्षति पर दुख नहीं, बल्कि खुशी होती है कि वह बच गया।
ढोंगी कृतज्ञता: वह अल्लाह का शुक्रिया अदा करता हुआ दिखता है, लेकिन यह कृतज्ञता नहीं बल्कि एक घृणित ढोंग है। असल में, वह अल्लाह की नियामत (कर्तव्य निभाने का मौका) से भागकर और अपने भाइयों की मुसीबत पर खुश होकर अल्लाह की नाराज़गी मोल ले रहा है।
मुख्य शिक्षा: सच्चा मोमिन वह है जो समाज के संकट के समय आगे बढ़कर खड़ा होता है, पीछे नहीं हटता। दूसरों की मुसीबत को अपनी खुशी का कारण समझना एक नीच और पाखंडी प्रवृत्ति है। ईमान की पहचान एकता और बलिदान से होती है, स्वार्थ और कायरता से नहीं।
अतीत, वर्तमान और भविष्य के सन्दर्भ में प्रासंगिकता (Relevance to Past, Present and Future)
1. अतीत में प्रासंगिकता (Past Context):
यह आयत उन मुनाफिकों के बारे में उतरी थी जो पैगंबर (स.अ.व.) के साथ धर्मयुद्ध में शामिल होने से बचते थे। जब मुसलमानों की सेना को किसी लड़ाई में नुकसान होता था, तो ये लोग मदीना में बैठकर यह कहते हुए खुशी जताते थे, "शुक्र है अल्लाह का कि मैं उस मुसीबत में नहीं फंसा।" यह उनकी कायरता और दोमुंहेपन को दर्शाता था।
2. वर्तमान में प्रासंगिकता (Contemporary Relevance):
आज के समय में इस आयत का अर्थ और भी व्यापक हो गया है:
सामाजिक जिम्मेदारियों से भागना: आज का 'धर्मयुद्ध' समाज की बुराइयों के खिलाफ लड़ाई है। कोई व्यक्ति अगर भ्रष्टाचार, अत्याचार, या गलत काम के खिलाफ आवाज उठाने से बचता है और सुस्ती दिखाता है, फिर जब उसके साथी को इसकी कीमत चुकानी पड़ती है (जैसे मुकदमा, प्रताड़ना), तो वह यह सोचकर खुश होता है कि "अच्छा हुआ मैंने आवाज नहीं उठाई," तो यह आज के मुनाफिक का चरित्र है।
समुदाय के कार्यों में अलगाव: मस्जिद, समाज या दीन के किसी काम में लोगों को मदद की जरूरत हो और कोई व्यक्ति बहाने बनाकर पीछे हट जाए, फिर अगर उस काम में कोई समस्या आ जाए तो वह उसे 'अल्लाह की नेमत' समझे, तो यही पाखंड है।
ऑनलाइन व्यवहार: सोशल मीडिया पर जब कोई सच्चाई की बात करने वाले को ऑनलाइन हैरेस (उत्पीड़न) का सामना करना पड़ता है, तो कुछ लोग यह सोचकर खुश होते हैं कि "अच्छा हुआ मैंने उस पोस्ट को शेयर नहीं किया।" यह भी आयत में बताई गई मानसिकता का ही एक रूप है।
3. भविष्य के लिए सन्देश (Message for the Future):
यह आयत भविष्य की सभी पीढ़ियों के लिए एक चेतावनी है:
सामूहिक दायित्व का सिद्धांत: यह आयत हमेशा याद दिलाती रहेगी कि मुसलमानों का जीवन एकजुटता और सामूहिक जिम्मेदारी पर आधारित है। भविष्य में किसी भी संकट में, अपने भाइयों से दूर भागना और उनकी मुसीबत पर खुश होना ईमान के खिलाफ है।
आत्म-जाँच का मापदंड: हर मुसलमान को इस आयत से खुद को जाँचना चाहिए। कहीं मैं भी तो उन लोगों में नहीं हूँ जो दीन के काम में सुस्ती दिखाते हैं और दूसरों की कठिनाइयों को देखकर स्वार्थपूर्ण राहत महसूस करते हैं?
चरित्र का निर्माण: यह आयत भविष्य की पीढ़ियों को एक मजबूत, साहसी और एकजुट चरित्र बनाने की प्रेरणा देगी। यह सिखाएगी कि मुसीबत के समय साथ देना ही ईमान है, और उससे भागना नफाकी (पाखंड) है।
निष्कर्ष (Conclusion):
कुरआन की यह आयत हमें एक गहरी सीख देती है कि सच्चा ईमान हमें सामूहिक जिम्मेदारी और बलिदान का पाठ पढ़ाता है। दूसरों की मुसीबत को अपनी किस्मत समझना और उससे सबक लेना चाहिए, न कि उस पर खुश होकर अल्लाह का शुक्रिया अदा करना चाहिए। एक मोमिन का दिल हमेशा अपने ईमान वाले भाइयों के साथ धड़कता है, चाहे वह शारीरिक रूप से उनके साथ हो या न हो।