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कुरआन की आयत 4:75 की पूरी व्याख्या

 

﴿وَمَا لَكُمْ لَا تُقَاتِلُونَ فِي سَبِيلِ اللَّهِ وَالْمُسْتَضْعَفِينَ مِنَ الرِّجَالِ وَالنِّسَاءِ وَالْوِلْدَانِ الَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَا أَخْرِجْنَا مِنْ هَٰذِهِ الْقَرْيَةِ الظَّالِمِ أَهْلُهَا وَاجْعَل لَّنَا مِن لَّدُنكَ وَلِيًّا وَاجْعَل لَّنَا مِن لَّدُنكَ نَصِيرًا﴾

(अरबी आयत)


शब्दार्थ (Meaning of Words):

  • وَمَا لَكُمْ: और तुम्हें क्या हो गया है

  • لَا تُقَاتِلُونَ: कि तुम लड़ते नहीं हो

  • فِي سَبِيلِ اللَّهِ: अल्लाह की राह में

  • وَالْمُسْتَضْعَفِينَ: और कमजोर पड़े हुए लोगों की खातिर

  • مِنَ الرِّجَالِ وَالنِّسَاءِ وَالْوِلْدَانِ: मर्दों, औरतों और बच्चों में से

  • الَّذِينَ يَقُولُونَ: जो कहते हैं

  • رَبَّنَا: हे हमारे पालनहार

  • أَخْرِجْنَا: हमें निकाल ले

  • مِنْ هَٰذِهِ الْقَرْيَةِ: इस बस्ती से

  • الظَّالِمِ أَهْلُهَا: जिसके रहने वाले अत्याचारी हैं

  • وَاجْعَل لَّنَا: और बना दे हमारे लिए

  • مِن لَّدُنكَ: अपने पास से

  • وَلِيًّا: रक्षक, सहायक

  • وَاجْعَل لَّنَا: और बना दे हमारे लिए

  • نَصِيرًا: मददगार


सरल अर्थ (Simple Meaning):

"और तुम्हें क्या हो गया है कि तुम अल्लाह की राह में और उन कमजोर पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों की खातिर नहीं लड़ते, जो यह कहते हैं कि 'हे हमारे पालनहार! हमें इस बस्ती से निकाल ले, जिसके रहने वाले अत्याचारी हैं, और हमारे लिए अपनी ओर से कोई रक्षक ठहरा दे और हमारे लिए अपनी ओर से कोई सहायक बना दे।'"


आयत का सन्देश और शिक्षा (Lesson from the Verse):

यह आयत धर्मयुद्ध के एक महत्वपूर्ण उद्देश्य को सामने रखती है - दमन और अत्याचार के शिकार लोगों की मदद करना। यह एक शक्तिशाली नैतिक दायित्व का आह्वान करती है:

  1. सवाल करने वाला स्वर: "तुम्हें क्या हो गया है?" यह एक तीखा प्रश्न है जो मोमिनों की अंतरात्मा को झकझोरता है। यह पूछता है कि जब निर्दोष लोग दमन सह रहे हैं, तो तुम चुप क्यों हो?

  2. धर्मयुद्ध का मानवीय पहलू: जिहाद (धर्मयुद्ध) सिर्फ धर्म की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि मानवता की रक्षा के लिए है। इसका उद्देश्य उन लोगों को न्याय दिलाना है जो अपनी आवाज नहीं उठा सकते - बूढ़े, औरतें, बच्चे।

  3. मुस्तज़अफ़ीन की पुकार: आयत उन पीड़ितों की दुआ को दर्शाती है जो:

    • अत्याचारी व्यवस्था से मुक्ति चाहते हैं।

    • अल्लाह से एक रक्षक और सहायक की माँग करते हैं।

    • यह दुआ हर युग के उत्पीड़ितों की आवाज बन जाती है।

  4. मोमिन की जिम्मेदारी: एक मोमिन के लिए यह जिम्मेदारी है कि वह अत्याचार के शिकार लोगों की यह दुआ सुनें और अल्लाह के बंदे के रूप में उनकी मदद के लिए आगे आएं।

मुख्य शिक्षा: इस्लाम सदैव कमजोर और उत्पीड़ित लोगों का पक्ष लेता है। एक मोमिन का फर्ज है कि वह न केवल अपने लिए, बल्कि समाज के सभी दबे-कुचले लोगों के लिए न्याय और स्वतंत्रता की लड़ाई लड़े।


अतीत, वर्तमान और भविष्य के सन्दर्भ में प्रासंगिकता (Relevance to Past, Present and Future)

1. अतीत में प्रासंगिकता (Past Context):

यह आयत उस समय के मक्का के उन कमजोर मुसलमानों के बारे में उतरी थी जिन्हें काफिरों ने अत्याचारों से तंग करके मक्का में ही कैद कर रखा था। वे मदीना के मुसलमानों से गुहार कर रहे थे कि उन्हें इस अत्याचारी शहर से मुक्त कराएँ। यह आयत मदीना के मुसलमानों से पूछती है कि तुम इन बेबस लोगों की मदद के लिए आगे क्यों नहीं आ रहे?

2. वर्तमान में प्रासंगिकता (Contemporary Relevance):

आज के समय में यह आयत बेहद प्रासंगिक है:

  • मानवाधिकार हनन: दुनिया के विभिन्न हिस्सों में मुसलमान (जैसे फिलिस्तीन) अत्याचार सह रहे हैं। यह आयत हमसे पूछती है कि हम उनकी मदद के लिए क्या कर रहे हैं? क्या हम उनकी आवाज बन रहे हैं?

  • सामाजिक न्याय: हमारे अपने समाज में गरीब, कमजोर और शोषित वर्ग (मजदूर, महिलाएं, दलित) हैं। यह आयत हमें उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित करती है।

  • नैतिक जिम्मेदारी: जब भी कोई कमजोर व्यक्ति अन्याय का शिकार होता है और मदद के लिए पुकारता है, तो एक मोमिन का फर्ज बनता है कि वह उसकी मदद के लिए आगे आए - चाहे वह कानूनी लड़ाई हो, वित्तीय मदद हो, या सामाजिक समर्थन हो।

3. भविष्य के लिए सन्देश (Message for the Future):

यह आयत भविष्य की सभी पीढ़ियों के लिए एक स्थायी मार्गदर्शक सिद्धांत है:

  • मानवता का संदेश: यह आयत भविष्य के मुसलमानों को यह संदेश देगी कि इस्लाम हमेशा से कमजोरों का पक्षधर रहा है। हमारी ताकत का इस्तेमाल गरीबों और मजलूमों की मदद के लिए होना चाहिए।

  • सक्रिय नागरिक की भूमिका: यह आयत भविष्य के युवाओं को सिखाएगी कि वे समाज में सकारात्मक बदलाव के एजेंट बनें। चुप्पी साधे रहना या स्वार्थ में डूबे रहना मोमिन का व्यवहार नहीं है।

  • वैश्विक भाईचारा: यह आयत मुसलमानों में एक वैश्विक नागरिक की भावना विकसित करेगी, जहाँ दुनिया के किसी भी कोने में पीड़ित की आवाज सुनकर उसकी मदद के लिए आगे आना हमारा धार्मिक दायित्व है।

निष्कर्ष (Conclusion):
कुरआन की यह आयत हर मोमिन के दिल में एक जिम्मेदारी का बीज बोती है। यह हमें याद दिलाती है कि इस्लाम सिर्फ व्यक्तिगत इबादत का धर्म नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और मानवीय करुणा का धर्म है। जब तक एक भी इंसान अत्याचार सह रहा है और "रब्बना अखरिजना" (हे हमारे पालनहार, हमें निकाल ले) की पुकार लगा रहा है, तब तक एक मोमिन का कर्तव्य है कि वह उसकी मदद के लिए हर संभव प्रयास करे। यही इस आयत का सार है।