﴿مَّن يُطِعِ الرَّسُولَ فَقَدْ أَطَاعَ اللَّهَ ۖ وَمَن تَوَلَّىٰ فَمَا أَرْسَلْنَاكَ عَلَيْهِمْ حَفِيظًا﴾
(अरबी आयत)
शब्दार्थ (Meaning of Words):
مَّن يُطِعِ: जो कोई आज्ञा पालन करे
الرَّسُولَ: रसूल (पैगंबर) की
فَقَدْ أَطَاعَ: तो उसने आज्ञा पालन किया
اللَّهَ: अल्लाह की
وَمَن تَوَلَّىٰ: और जो कोई मुँह मोड़े
فَمَا أَرْسَلْنَاكَ: तो हमने तुम्हें नहीं भेजा है
عَلَيْهِمْ: उन पर
حَفِيظًا: निगरान (जबरदस्ती करने वाला) के रूप में
सरल अर्थ (Simple Meaning):
"जो कोई रसूल (पैगंबर) की आज्ञा का पालन करता है, उसने अल्लाह की आज्ञा का पालन किया। और जो कोई मुँह मोड़ता है, तो (हे पैगंबर!) हमने आपको उन पर निगरान (जबरदस्ती करने वाला) बनाकर नहीं भेजा है।"
आयत का सन्देश और शिक्षा (Lesson from the Verse):
यह आयत इस्लामी विश्वास की एक बहुत ही महत्वपूर्ण बुनियाद रखती है:
पैगंबर की आज्ञा = अल्लाह की आज्ञा: यह आयत स्पष्ट करती है कि पैगंबर मुहम्मद (स.अ.व.) की आज्ञा का पालन करना सीधे तौर पर अल्लाह की आज्ञा का पालन करना है। दोनों के बीच कोई अलगाव नहीं है। इसका मतलब यह है कि पैगंबर (स.अ.व.) की सुन्नत (तरीका और शिक्षाएँ) को मानना ईमान का एक अनिवार्य हिस्सा है।
जबरदस्ती का अभाव: इस्लाम में जबरदस्ती नहीं है। पैगंबर (स.अ.व.) का काम लोगों को जबरदस्ती ईमान लाने के लिए मजबूर करना नहीं, बल्कि सही रास्ता दिखाना और संदेश पहुँचाना है। मनवाना या न मनवाना लोगों की अपनी पसंद पर निर्भर है।
व्यक्तिगत जिम्मेदारी: चूँकि पैगंबर (स.अ.व.) जबरदस्ती करने वाले नहीं हैं, इसलिए हर व्यक्ति स्वयं अपने फैसलों के लिए जिम्मेदार है। जो पैगंबर की बात नहीं मानता, वह अपने आप को नुकसान पहुँचाता है।
मुख्य शिक्षा: एक सच्चा मोमिन वह है जो पैगंबर (स.अ.व.) के हर आदेश और हर कार्य को अल्लाह का आदेश मानकर स्वेच्छा से अपनाता है। साथ ही, दूसरों को इस्लाम की दावत देते समय हमें धैर्य और समझदारी से काम लेना चाहिए, न कि जबरदस्ती करनी चाहिए।
अतीत, वर्तमान और भविष्य के सन्दर्भ में प्रासंगिकता (Relevance to Past, Present and Future)
1. अतीत में प्रासंगिकता (Past Context):
यह आयत पैगंबर (स.अ.व.) के समय में उतरी, जब कुछ लोग बाहरी तौर पर तो ईमान लाते थे, लेकिन पैगंबर के फैसलों और आदेशों को पूरी तरह से नहीं मानते थे। यह आयत स्पष्ट करती है कि ऐसा करना वास्तव में अल्लाह की अवज्ञा है। साथ ही, यह आयत पैगंबर (स.अ.व.) को सांत्वना देती है कि अगर कोई आपकी बात नहीं मानता, तो आप उसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं, क्योंकि आपका काम केवल संदेश पहुँचाना है।
2. वर्तमान में प्रासंगिकता (Contemporary Relevance):
आज के समय में यह आयत बेहद प्रासंगिक है:
सुन्नत की अहमियत: आज कुछ लोग कुरआन को तो मानते हैं, लेकिन पैगंबर (स.अ.व.) की सुन्नत (जैसे दाढ़ी रखना, मिस्वाक करना, ऐसे तरीके से नमाज पढ़ना जैसे पैगंबर ने सिखाया) को कम अहमियत देते हैं या छोड़ देते हैं। यह आयत स्पष्ट करती है कि पैगंबर की आज्ञा का पालन करना सीधे तौर पर अल्लाह की आज्ञा का पालन करना है।
दावत का सही तरीका: जब हम दूसरों को इस्लाम की तरफ बुलाते हैं, तो हमें यह याद रखना चाहिए कि हमारा काम सिर्फ संदेश पहुँचाना और अच्छे तरीके से समझाना है। लोगों को जबरदस्ती ईमान लाने के लिए मजबूर करना या उन्हें डराना-धमकाना गलत है। यह आयत धार्मिक स्वतंत्रता के इस्लामी सिद्धांत को दर्शाती है।
व्यक्तिगत पसंद का सम्मान: हमारे समाज में विभिन्न विचारों वाले लोग रहते हैं। यह आयत हमें सिखाती है कि हमें उन लोगों के साथ भी शांति और सम्मान से रहना चाहिए जो हमारे विश्वासों को नहीं मानते, क्योंकि जबरदस्ती करना हमारा काम नहीं है।
3. भविष्य के लिए सन्देश (Message for the Future):
यह आयत भविष्य की सभी पीढ़ियों के लिए एक स्थायी मार्गदर्शक है:
ईमान की पूर्णता: यह आयत भविष्य के मुसलमानों को हमेशा याद दिलाती रहेगी कि उनका ईमान तब तक पूरा नहीं होगा जब तक वे कुरआन के साथ-साथ पैगंबर (स.अ.व.) की सुन्नत को भी नहीं अपनाएँगे।
सहिष्णुता का पाठ: एक बहु-धार्मिक और बहु-विचारधारा वाले विश्व में, यह आयत मुसलमानों को सहिष्णुता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का पाठ पढ़ाती रहेगी।
आत्म-सुधार पर ध्यान: यह आयत मुसलमानों को यह सिखाएगी कि दूसरों को बदलने पर जोर देने के बजाय, पहले खुद को पैगंबर (स.अ.व.) के रास्ते पर चलाकर बनाने पर ध्यान देना चाहिए।
निष्कर्ष (Conclusion):
कुरआन की यह आयत हर मोमिन के लिए एक मौलिक सिद्धांत स्थापित करती है: पैगंबर (स.अ.व.) का अनुसरण ही अल्लाह की वास्तविक आज्ञापालन है। यह हमें सच्चे ईमान की ओर ले जाती है और साथ ही हमें दूसरों के प्रति सहनशील और समझदार बनने की शिक्षा देती है। यह संतुलन ही इस्लाम की सुंदरता है।