﴿وَالَّذِينَ كَفَرُوا وَكَذَّبُوا بِآيَاتِنَا أُولَٰئِكَ أَصْحَابُ الْجَحِيمِ﴾
(सूरह अल-माइदा, आयत नंबर 10)
अरबी शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning)
وَالَّذِينَ: और जिन लोगों ने।
كَفَرُوا: इनकार किया (कुफ़्र किया)।
وَكَذَّبُوا: और झुठलाया।
بِآيَاتِنَا: हमारी आयतों (निशानियों) को।
أُولَٰئِكَ: वही लोग हैं।
أَصْحَابُ: वासी/साथी।
الْجَحِيمِ: जहन्नुम (दोज़ख) के।
पूरी आयत का अर्थ (Full Translation in Hindi)
"और जिन लोगों ने इनकार किया और हमारी आयतों को झुठलाया, वही लोग जहन्नुम के वासी हैं।"
विस्तृत व्याख्या (Full Explanation in Hindi)
यह आयत पिछली आयत (5:9) का सीधा विपरीत (Contrast) है। पिछली आयत में ईमान वालों और नेक कर्म करने वालों के लिए अल्लाह के वादे का वर्णन था, जबकि यह आयत उन लोगों के परिणाम की घोषणा करती है जिन्होंने अल्लाह और उसके संदेश को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
1. दोषों का वर्णन: "अल्लज़ीना कफरू व कज़्ज़बू बि-आयातिना"
इस आयत में दोष के दो स्तर बताए गए हैं:
कुफ़्र (इनकार): यह एक सामान्य स्थिति है। इसका अर्थ है सत्य को ठुकराना, अहंकारवश या उदासीनतावश उसे स्वीकार न करना। यह हृदय और मन की वह स्थिति है जो सत्य को ग्रहण नहीं करती।
तकज़ीब (झुठलाना): यह कुफ़्र से भी अधिक गंभीर स्थिति है। इसका अर्थ है सत्य को सुनने, समझने और उसके प्रमाण देखने के बाद भी जानबूझकर और दृढ़ता से उसे झुठलाना। यह एक सक्रिय विरोध है।
2. परिणाम की घोषणा: "उलाइका अस-हाबुल जहीम"
"उलाइका" (वही लोग): यह शब्द एक स्पष्ट पहचान और अलगाव दर्शाता है। जिस प्रकार ईमान वालों के लिए एक समूह है, उसी प्रकार इनकार करने वालों के लिए भी एक अलग समूह है।
"अस-हाबुल जहीम" (जहन्नुम के वासी): यह केवल एक सजा नहीं है, बल्कि एक स्थायी निवास स्थान है। "अस-हाब" शब्द का अर्थ है साथी या निवासी, जो इस बात का संकेत है कि यह दशा अस्थायी नहीं, बल्कि स्थायी होगी (उन लोगों के लिए जो सच्चाई को पूरी तरह से ठुकरा देते हैं)।
"अल-जहीम" आग का एक गहरा और भयंकर गड्ढा है, जो दुख और यातना का प्रतीक है।
3. पूर्ण संदर्भ:
इस आयत को पिछली आयतों के साथ जोड़कर देखना ज़रूरी है। अल्लाह पहले ईमान वालों के लिए पुरस्कार का वादा करता है (आयत 9) और फिर तुरंत बाद इनकार करने वालों के परिणाम से अवगत कराता है (आयत 10)। यह शैली मनुष्य को चुनाव की स्वतंत्रता देते हुए, उसके हर चुनाव के परिणाम से अवगत कराती है। यह एक तरफ प्रोत्साहन है तो दूसरी तरफ चेतावनी।
सीख और शिक्षा (Lesson and Moral)
जिम्मेदारी का बोध: यह आयत मनुष्य को उसके विश्वास और कर्मों की गंभीरता का एहसास कराती है। इंसान का अंतिम लक्ष्य केवल यह दुनिया नहीं है, बल्कि एक अनंत परिणाम (आखिरत) की तैयारी करना है।
सत्य को झुठलाने का गंभीर परिणाम: अल्लाह की निशानियों (कुरआन, प्रकृति, पैगंबर) को जानबूझकर झुठलाना सबसे बड़ा पाप है, जिसका परिणाम बहुत ही भयानक है।
न्याय का सिद्धांत: यह आयत इस बात पर जोर देती है कि अल्लाह का न्याय पूर्णतः न्यायसंगत है। वह हर किसी को उसके अपने चुनाव का परिणाम देगा। जिसने अच्छाई चुनी, उसे अच्छाई मिली और जिसने बुराई चुनी, उसे बुराई का फल मिला।
चेतावनी का उद्देश्य: इस आयत का उद्देश्य केवल डराना नहीं है, बल्कि मनुष्य को सचेत करना और उसे गलत रास्ते से बचाना है। यह एक दयालु पिता की उस सख्त चेतावनी की तरह है जो बच्चे को आग में हाथ डालने से रोकता है।
प्रासंगिकता: अतीत, वर्तमान और भविष्य (Relevancy: Past, Contemporary Present and Future)
1. अतीत में प्रासंगिकता (Relevancy in the Past):
मक्का के काफिरों के लिए चेतावनी: यह आयत प्रारंभिक इस्लामिक काल में मक्का के उन लोगों के लिए एक सीधी चेतावनी थी, जो पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) के संदेश और कुरआन की आयतों को सुनने के बाद भी जिद और अहंकार में उसे झुठला रहे थे और मुसलमानों पर अत्याचार कर रहे थे।
ईमान वालों के लिए दिलासा: दूसरी ओर, यह आयत उत्पीड़ित मुसलमानों के लिए एक दिलासा थी कि अत्याचारी लोग अपने कर्मों का फल अवश्य भुगतेंगे और अल्लाह का न्याय निश्चित है।
2. वर्तमान समय में प्रासंगिकता (Relevancy in the Contemporary Present):
धर्मनिरपेक्षतावाद और इनकार की संस्कृति: आज का युग एक ऐसा युग है जहाँ धर्म और ईश्वर के अस्तित्व को सार्वजनिक रूप से चुनौती दी जाती है। वैज्ञानिक तथ्यों (जो अल्लाह की निशानियाँ हैं) को देखने के बावजूद ईश्वर के होने से इनकार करना, इस आयत में बताई गई "तकज़ीब" (झुठलाने) की श्रेणी में आ सकता है।
चुनिंदा इस्लाम: कई लोग कुरआन की उन आयतों को स्वीकार करते हैं जो उनकी इच्छाओं के अनुकूल होती हैं, लेकिन जो आयतें उनकी इच्छाओं के विपरीत होती हैं, उन्हें नज़रअंदाज़ कर देते हैं या उनकी व्याख्या बदल देते हैं। यह भी एक प्रकार की "तकज़ीब" ही है।
नैतिक सापेक्षवाद: आज की दुनिया में, पूर्ण सत्य और नैतिकता की अवधारणा को चुनौती दी जा रही है। यह आयत हमें याद दिलाती है कि एक पूर्ण सत्य है और उसे झुठलाने के गंभीर परिणाम हैं।
3. भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy in the Future):
तकनीकी अहंकार और नास्तिकता: भविष्य में, जैसे-जैसे मनुष्य की तकनीकी शक्ति बढ़ेगी, उसका अहंकार और ईश्वर से स्वतंत्र होने का भाव भी बढ़ सकता है (जैसा कि कुछ ट्रांसह्यूमनिस्ट विचारधाराओं में देखा जाता है)। यह आयत भविष्य के मनुष्य को यह चेतावनी देती रहेगी कि उसकी शक्ति चाहे कितनी भी बढ़ जाए, वह सृष्टिकर्ता के सामने जिम्मेदार है।
सत्य की खोज में मार्गदर्शन: भविष्य की जटिल दुनिया में, जहाँ सत्य और झूठ का अंतर धुंधला होता जाएगा, यह आयत "आयातिना" (हमारी निशानियों) को पहचानने और उन पर विश्वास करने के महत्व पर जोर देगी। ये निशानियाँ कुरआन, प्रकृति में अल्लाह के चिन्ह और एक सच्चे मार्गदर्शक का हृदय हो सकती हैं।
एक स्थायी नैतिक आधार: चाहे समाज कितना भी बदल जाए, पाप और पुण्य, सत्य और असत्य की मौलिक अवधारणाएँ बनी रहेंगी। यह आयत हर युग के मनुष्य को यह याद दिलाती रहेगी कि उसके चुनावों का एक शाश्वत परिणाम है और वह अपने जीवन के प्रति जवाबदेह है।
निष्कर्ष: यह आयत, अपनी संक्षिप्तता में, एक गहन और गंभीर सत्य को उजागर करती है। यह केवल एक धमकी नहीं है, बल्कि मानव जाति के लिए एक दयालु चेतावनी है। यह हमें हमारी जिम्मेदारी का एहसास कराती है और हमें सचेत करती है कि हमारे कर्मों का लेखा-जोखा होगा। यह आयत हमें जीवन के सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न – "मेरा अंतिम लक्ष्य क्या है?" – पर विचार करने के लिए प्रेरित करती है।