कुरआन की आयत 4:158 की पूर्ण व्याख्या

 (1) पूरी आयत अरबी में:

"بَل رَّفَعَهُ اللَّهُ إِلَيْهِ ۚ وَكَانَ اللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمًا"

(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):

  • بَل (Bal): बल्कि (इसके विपरीत)।

  • رَّفَعَهُ (Rafa'ahu): उसे उठा लिया।

  • اللَّهُ (Allāhu): अल्लाह ने।

  • إِلَيْهِ (Ilayhi): अपनी ओर।

  • وَكَانَ (Wa Kāna): और है (हमेशा से)।

  • اللَّهُ (Allāhu): अल्लाह।

  • عَزِيزًا (Azīzan): सर्वशक्तिमान, प्रभुत्वशाली।

  • حَكِيمًا (Ḥakīman): अत्यंत बुद्धिमान, तत्वदर्शी।

(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:

यह आयत पिछली आयत (4:157) का सीधा और तार्किक निष्कर्ष है। जहां आयत 157 में हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) की सूली और हत्या के दावे का खंडन किया गया, वहीं यह आयत बताती है कि आखिर उनका हश्र क्या हुआ। यह इस्लामी अकीदे (विश्वास) का एक मूलभूत हिस्सा है।

आयत का भावार्थ: "बल्कि अल्लाह ने उन्हें (ईसा अलैहिस्सलाम को) अपनी ओर उठा लिया। और अल्लाह सर्वशक्तिमान, तत्वदर्शी है।"

(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):

यह आयत बेहद संक्षिप्त है लेकिन इसका महत्व और अर्थ बहुत गहरा है।

  • "बल रफअहुल्लाहु इलैहि" (बल्कि अल्लाह ने उन्हें अपनी ओर उठा लिया):

    • "बल" शब्द पिछली बात को पूरी तरह से नकारकर एक नई, सच्ची और महत्वपूर्ण सूचना देता है।

    • "रफअहु" का अर्थ है 'उठा लिया'। इसका तात्पर्य शारीरिक और आध्यात्मिक रूप से आसमान की ओर उठाए जाने से है।

    • इस्लामी मान्यता के अनुसार, अल्लाह ने हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) को यहूदियों की साजिश से बचाकर सीधे आसमान पर जीवित अवस्था में उठा लिया। वह वहीं पर हैं और कयामत से पहले दुनिया में दोबारा वापस आएंगे।

  • हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) के वापस आने (Nuzul) पर विश्वास:

    • यह आयत सीधे तौर पर वापसी का जिक्र नहीं करती, लेकिन अनेक सही हदीसों (पैगम्बर की बातों) से यह बात स्पष्ट होती है कि हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) दुनिया में वापस आएंगे।

    • उनका उद्देश्य होगा:

      1. दज्जाल (झूठा मसीह) को मारना।

      2. इस्लाम की विजय करना।

      3. दुनिया में न्याय और शांति स्थापित करना।

    • फिर वह एक सामान्य मनुष्य की तरह निधन को प्राप्त होंगे।

  • अल्लाह की सिफात: "व कानल्लाहु अज़ीज़न हकीमा"

    • अज़ीज़ (सर्वशक्तिमान): अल्लाह की शक्ति पूर्ण है। वह अपने पैगम्बर को सूली से बचाने और आसमान पर उठाने में पूरी तरह सक्षम था। कोई उसकी शक्ति को चुनौती नहीं दे सकता।

    • हकीम (अत्यंत बुद्धिमान): अल्लाह का हर काम गहरी हिकमत (बुद्धिमत्ता) से भरा हुआ है। हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) को उठाने में उसकी बुद्धिमत्ता छिपी है:

      • उसने अपने पैगम्बर की रक्षा की।

      • उसने यहूदियों की साजिश को विफल किया।

      • उसने भविष्य के लिए एक महान घटना (वापसी) का आधार तैयार किया।

(5) शिक्षा और सबक (Lesson):

  1. अल्लाह की शक्ति पर पूर्ण विश्वास: अल्लाह हर चीज पर पूर्ण शक्ति रखता है। वह प्रकृति के नियमों से परे चमत्कार कर सकता है। हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) का आसमान पर उठाया जाना इसी शक्ति का प्रमाण है।

  2. पैगम्बरों का सम्मान: अल्लाह अपने पैगम्बरों की इज्जत करता है और उनकी रक्षा करता है। एक मुसलमान का फर्ज है कि वह सभी पैगम्बरों का गहरा सम्मान करे।

  3. भविष्य के प्रति आशावान: हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) की वापसी का विश्वास मुसलमानों को भविष्य के प्रति आशावान बनाता है। यह विश्वास दिलाता है कि आखिरकार अल्लाह का दीन ही विजयी होगा और पृथ्वी पर न्याय स्थापित होगा।

(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):

  • अतीत (Past) में: यह आयत प्रारंभिक मुस्लिम समुदाय के लिए हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) के बारे में सही और स्पष्ट अकीदा स्थापित करती थी। इसने उन्हें यहूदियों और ईसाइयों के बीच उलझे हुए विश्वासों से अलग एक स्पष्ट रास्ता दिखाया।

  • समकालीन वर्तमान (Contemporary Present) में: आज यह आयत बेहद प्रासंगिक है।

    • ईसाई-मुस्लिम संवाद: यह आयत ईसाइयत और इस्लाम के बीच संवाद का एक महत्वपूर्ण बिंदु है। जहां ईसाई सूली और पुनरुत्थान में विश्वास करते हैं, वहीं मुसलman आसमान पर उठाए जाने और भविष्य में वापस आने में विश्वास रखते हैं। यह सम्मानपूर्ण असहमति का क्षेत्र है।

    • आध्यात्मिक आशा: आज की अशांत और अत्याचारों से भरी दुनिया में, हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) की वापसी का विश्वास मुसलमानों के लिए एक बहुत बड़ी आशा और सांत्वना का स्रोत है। यह विश्वास दिलाता है कि एक दिन दुनिया से बुराई का अंत होगा।

    • अल्लाह की शक्ति का एहसास: एक भौतिकवादी दुनिया में, यह आयत हमें याद दिलाती है कि एक सर्वशक्तिमान ईश्वर है जो इस ब्रह्मांड और उसके नियमों का मालिक है।

  • भविष्य (Future) में: जब तक दुनिया रहेगी, हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) का व्यक्तित्व और उनका भविष्य में स्थान एक महत्वपूर्ण विषय बना रहेगा। यह आयत कयामत तक मुसलमानों के लिए एक स्थायी मार्गदर्शक सिद्धांत बनी रहेगी। यह उनके विश्वास को मजबूत करती रहेगी कि हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) शहीद नहीं हुए, बल्कि वह जीवित हैं और अल्लाह की योजना के अनुसार दुनिया में वापस आकर न्याय स्थापित करेंगे। यह आयत भविष्य की हर पीढ़ी को अल्लाह की शक्ति और बुद्धिमत्ता पर विश्वास करने की प्रेरणा देती रहेगी।

निष्कर्ष: सूरह अन-निसा की यह आयत हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) के बारे में इस्लाम के अकीदे को संक्षेप में प्रस्तुत करती है। यह एक स्पष्ट इनकार के साथ शुरू होती है और एक महान सत्य की पुष्टि के साथ समाप्त होती है। यह हमें सिखाती है कि अल्लाह की शक्ति असीम है और उसकी हिकमत (बुद्धिमत्ता) हर काम में छिपी है। एक मुसलमान के लिए, हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) का आसमान पर उठाया जाना और उनकी वापसी का इंतजार करना, ईमान का एक अभिन्न अंग है जो भविष्य के प्रति आशा और अल्लाह की योजना पर विश्वास को मजबूत करता है।

कुरआन की आयत 4:157 की पूर्ण व्याख्या

 (1) पूरी आयत अरबी में:

"وَقَوْلِهِمْ إِنَّا قَتَلْنَا الْمَسِيحَ عِيسَى ابْنَ مَرْيَمَ رَسُولَ اللَّهِ وَمَا قَتَلُوهُ وَمَا صَلَبُوهُ وَلَٰكِن شُبِّهَ لَهُمْ ۚ وَإِنَّ الَّذِينَ اخْتَلَفُوا فِيهِ لَفِي شَكٍّ مِّنْهُ ۚ مَا لَهُم بِهِ مِنْ عِلْمٍ إِلَّا اتِّبَاعَ الظَّنِّ ۚ وَمَا قَتَلُوهُ يَقِينًا"

(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):

  • وَقَوْلِهِمْ (Wa Qawlihim): और उनके कहने के कारण।

  • إِنَّا (Innā): निश्चित ही हमने।

  • قَتَلْنَا (Qatalnā): मार डाला।

  • الْمَسِيحَ (Al-Masīḥa): मसीह को।

  • عِيسَى (Īsā): ईसा।

  • ابْنَ (Ibna): पुत्र को।

  • مَرْيَمَ (Maryama): मरयम के।

  • رَسُولَ (Rasūla): रसूल (पैगम्बर) को।

  • اللَّهِ (Allāhi): अल्लाह के।

  • وَمَا (Wa Mā): और उन्होंने नहीं।

  • قَتَلُوهُ (Qatalūhu): उन्होंने उसे मारा।

  • وَمَا (Wa Mā): और नहीं।

  • صَلَبُوهُ (Ṣalabūhu): उन्होंने उसे सूली पर चढ़ाया।

  • وَلَٰكِن (Wa Lākin): बल्कि।

  • شُبِّهَ (Shubbiha): समान बना दिया गया (भ्रम पैदा कर दिया गया)।

  • لَهُمْ (Lahum): उनके लिए।

  • وَإِنَّ (Wa Inna): और निश्चित रूप से।

  • الَّذِينَ (Alladhīna): जो लोग।

  • اخْتَلَفُوا (Ikhtalafū): मतभेद किया।

  • فِيهِ (Fīhi): उसके बारे में।

  • لَفِي (Lafī): अवश्य ही हैं।

  • شَكٍّ (Shakkin): संदेह में।

  • مِّنْهُ (Minhu): उससे।

  • مَا (Mā): नहीं है।

  • لَهُم (Lahum): उनके पास।

  • بِهِ (Bihi): उसके बारे में।

  • مِن (Min): कोई।

  • عِلْمٍ (Ilmin): ज्ञान।

  • إِلَّا (Illā): सिवाय।

  • اتِّبَاعَ (Ittibā'a): अनुसरण करने के।

  • الظَّنِّ (Až-Žanni): अटकल/अनुमान का।

  • وَمَا (Wa Mā): और उन्होंने नहीं।

  • قَتَلُوهُ (Qatalūhu): उसे मारा।

  • يَقِينًا (Yaqīnan): निश्चित रूप से (यकीन के साथ)।

(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:

यह आयत इस्लाम के सबसे मौलिक और महत्वपूर्ण अकीदों (विश्वासों) में से एक को स्पष्ट करती है। यह यहूदियों के एक और गंभीर दावे का खंडन करती है – हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) को सूली पर चढ़ाने और मार डालने का। यह आयत इस ऐतिहासिक घटना के बारे में इस्लाम का स्पष्ट और अंतिम रुख बताती है।

आयत का भावार्थ: "और (उन पर प्रकोप) उनके इस कहने के कारण (हुआ) कि 'हमने मरयम के बेटे मसीह ईसा अल्लाह के रसूल को मार डाला है।' हालांकि उन्होंने न तो उसे मारा और न ही सूली पर चढ़ाया, बल्कि (किसी और को) उनके लिए (ईसा) जैसा बना दिया गया। और जिन लोगों ने इस (मामले) में मतभेद किया है, वे निश्चित रूप से इसके बारे में संदेह में पड़े हुए हैं। उनके पास इसका कोई ज्ञान नहीं है, बल्कि वे केवल अटकलों का अनुसरण कर रहे हैं। और उन्होंने निश्चित रूप से उसे (ईसा को) नहीं मारा।"

(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):

यह आयत एक ऐतिहासिक दावे को पूरी तरह से खारिज करती है और इसके पीछे की सच्चाई को बयान करती है।

  • यहूदियों का दावा और उसका खंडन: यहूदी गर्व के साथ यह दावा करते थे कि उन्होंने हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) को सूली पर चढ़ाकर मार डाला। अल्लाह इस दावे को तीन शब्दों में पूरी तरह नकार देता है: "व मा कतलूहू व मा सलबूहू" (और उन्होंने न तो उसे मारा और न ही सूली पर चढ़ाया)।

  • सच्चाई क्या है? "व लाकिन शुब्बिहा लहुम" (बल्कि उनके लिए (किसी और को) समान बना दिया गया):

    • इस्लामी मान्यता के अनुसार, अल्लाह ने हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) को बचा लिया और उन्हें आसमान पर उठा लिया।

    • यहूदियों ने जिसे पकड़ा, सूली पर चढ़ाया और मारा, वह हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) नहीं थे। अल्लाह ने किसी और को हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) का रूप (शबीह) दे दिया था। तफ्सीरों में बताया गया है कि यह यहूदियों का ही एक व्यक्ति था जिसे अल्लाह ने ईसा (अलैहिस्सलाम) का सा रूप दे दिया और यहूदियों ने उसे ही पकड़कर सूली पर चढ़ा दिया।

    • यह अल्लाह की शक्ति और उसके पैगम्बर की रक्षा करने का एक चमत्कार था।

  • ईसाईयों में मतभेद और अटकलें: आयत कहती है कि जो लोग इस मामले में मतभेद करते हैं (जैसे ईसाई जो सूली पर मौत और फिर पुनरुत्थान में विश्वास करते हैं), वे वास्तव में संदेह में हैं। उनके पास इसका कोई पक्का ज्ञान नहीं है, वे सिर्फ अफवाहों और अटकलों (अज़-ज़न) के पीछे चल रहे हैं।

  • अंतिम पुष्टि: "व मा कतलूहू यकीना" (और उन्होंने निश्चित रूप से उसे नहीं मारा): आयत अपने बयान का अंत एक दृढ़ और अंतिम पुष्टि के साथ करती है। यह कोई अस्पष्ट बात नहीं है; यह एक निश्चित सत्य (यक़ीन) है।

(5) शिक्षा और सबक (Lesson):

  1. हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) का सम्मान: एक मुसलमान हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) को अल्लाह का एक महान पैगम्बर और हज़रत मरयम के पुत्र के रूप में मानता और सम्मान करता है।

  2. अल्लाह की शक्ति में विश्वास: अल्लाह अपने पैगम्बरों की रक्षा करने में पूरी तरह सक्षम है। सूली पर चढ़ाना अल्लाह के एक पैगम्बर के लिए शोभा नहीं देता।

  3. ज्ञान के बिना अटकलों से बचें: किसी भी मामले में, खासकर धार्मिक मामलों में, बिना ज्ञान के अफवाहों और अटकलों पर विश्वास नहीं करना चाहिए। सत्य को दृढ़ता से थामना चाहिए।

(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):

  • अतीत (Past) में: यह आयत यहूदियों के झूठे दावे का सीधा खंडन थी और मुसलमानों के लिए हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) के बारे में सही अकीदा स्थापित करती थी।

  • समकालीन वर्तमान (Contemporary Present) में: आज यह आयत बेहद प्रासंगिक है।

    • ईसाई-मुस्लिम संवाद: यह आयत ईसाइयत और इस्लाम के बीच एक मौलिक मतभेद की ओर इशारा करती है। एक मुसलमान हज़रत ईसा की सूली और पुनरुत्थान में विश्वास नहीं करता, बल्कि यह मानता है कि अल्लाह ने उन्हें बचा लिया और वह दोबारा दुनिया में आएंगे (दज्जाल के खिलाफ लड़ने के लिए)। यह संवाद के लिए एक आधारभूत बिंदु है।

    • सत्य बनाम अटकल: आज का मीडिया और सोशल मीडिया अटकलों (ज़न) से भरा पड़ा है। लोग बिना पुष्टि किए किसी भी खबर को फैला देते हैं। यह आयत हमें सिखाती है कि हमें "इत्तिबा अज़-ज़न" (अनुमान का अनुसरण) से बचना चाहिए और यकीनी ज्ञान तक पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए।

    • धार्मिक सहिष्णुता: जबकि मुसलमान ईसाइयों के इस विश्वास से सहमत नहीं हैं, वे हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) का गहरा सम्मान करते हैं। यह आयत सम्मानपूर्ण असहमति का एक उदाहरण है।

  • भविष्य (Future) में: जब तक ईसाई और मुसलमान दुनिया में रहेंगे, हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) की भूमिका और उनके अंत के बारे में यह मतभेद बना रहेगा। यह आयत कयामत तक मुसलमानों के लिए एक स्थायी मार्गदर्शक सिद्धांत बनी रहेगी। यह उन्हें याद दिलाती रहेगी कि हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) अल्लाह के सम्मानित पैगम्बर हैं और उनकी हत्या नहीं की गई। साथ ही, यह भविष्य के सभी लोगों को "अटकल" के बजाय "यक़ीन" पर चलने की शिक्षा देती रहेगी।

निष्कर्ष: कुरआन की यह आयत एक ऐतिहासिक दावे को स्पष्ट शब्दों में खारिज करते हुए एक बहुत बड़े सत्य को स्थापित करती है। यह हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) के प्रति इस्लाम के गहरे सम्मान को दर्शाती है और यह स्पष्ट करती है कि अल्लाह के पैगम्बर की हत्या नहीं की गई, बल्कि अल्लाह ने उन्हें बचा लिया। यह आयत हमें सिखाती है कि हमें धार्मिक मामलों में अटकलों से दूर रहकर दृढ़ विश्वास और ज्ञान पर आधारित सत्य को थामना चाहिए।


कुरआन की आयत 4:156 की पूर्ण व्याख्या

 (1) पूरी आयत अरबी में:

"وَبِكُفْرِهِمْ وَقَوْلِهِمْ عَلَىٰ مَرْيَمَ بُهْتَانًا عَظِيمًا"

(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):

  • وَبِكُفْرِهِمْ (Wa-bikufrihim): और उनके इनकार (कुफ्र) के कारण।

  • وَقَوْلِهِمْ (Wa qawlihim): और उनके कहने के कारण।

  • عَلَىٰ (Alā): पर।

  • مَرْيَمَ (Maryama): मरयम (अलैहिस्सलाम) के।

  • بُهْتَانًا (Buhtānan): एक बड़ा झूठ, बदनाम करने वाला आरोप।

  • عَظِيمًا (Aẓīman): अत्यंत बड़ा, भारी।

(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:

यह आयत पिछली आयत (4:155) में गिनाए गए बनी इसराईल के अपराधों की सूची को जारी रखती है और उनके एक और जघन्य पाप को उजागर करती है। यह आयत उस घिनौने आरोप (बुहतान) का जिक्र करती है जो यहूदियों के एक गिरोह ने हज़रत मरयम (अलैहिस्सलाम) पर लगाया था।

आयत का भावार्थ: "और (उन पर अल्लाह का प्रकोप) उनके कुफ्र के कारण और मरयम पर एक बड़ा बदनाम करने वाला आरोप लगाने के कारण (हुआ)।"

(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):

यह आयत बहुत ही संक्षिप्त है, लेकिन इसका अर्थ बहुत गहरा और गंभीर है। यह बनी इसराईल के चरित्र की एक और कलंकित परत को दर्शाती है।

  • "बुहतानन अज़ीमा" (एक बड़ा बदनाम करने वाला आरोप) क्या था?

    • ऐतिहासिक और तफ्सीरी स्रोतों के अनुसार, यहूदियों के एक वर्ग ने हज़रत मरयम (अलैहिस्सलाम) की पवित्रता पर हमला किया और उन पर एक भयानक झूठा आरोप लगाया।

    • उन्होंने यह कहकर उनकी निंदा की कि वह एक बच्चे की माँ बनी हैं जबकि वह विवाहित नहीं थीं। उन्होंने हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) के जन्म के चमत्कार को न मानते हुए, उनकी माँ की पवित्रता पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया।

    • कुरआन ने इस आरोप को स्पष्ट रूप से "बुहतान" (झूठा आरोप) कहा है और हज़रत मरयम को एक पवित्र, शुद्ध और चुनी हुई हस्ती के रूप में पेश किया है (जैसा कि सूरह आले-इमरान और सूरह मरयम में विस्तार से है)।

  • यह आरोप क्यों "अज़ीम" (बहुत बड़ा) है?

    1. एक पवित्र महिला पर आरोप: यह सिर्फ किसी साधारण महिला पर नहीं, बल्कि अल्लाह द्वारा चुनी हुई, एक पैगम्बर की माँ पर लगाया गया आरोप था।

    2. अल्लाह के चमत्कार का इनकार: यह आरोप अल्लाह की शक्ति और उसके चमत्कार (हज़रत ईसा का बिना पिता के पैदा होना) के सीधे इनकार के समान था।

    3. समाजिक बदनामी: उस समय के समाज में एक महिला के लिए ऐसा आरोप सबसे बड़ी बदनामी और अपमान का विषय था।

  • पिछली आयतों के साथ संबंध: यह आरोप पिछली आयत में बताए गए उनके तीसरे अपराध "व कत्लिहिमुल अम्बिया-या बि-गैरि हक्किन" (और नाहक़ पैगम्बरों को कत्ल करने) से सीधे जुड़ा हुआ है। हज़रत मरयम पर झूठा आरोप लगाना, उनके बेटे हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) के खिलाफ एक सुनियोजित मुहिम का हिस्सा था, जिसका अंतिम लक्ष्य उन्हें भी शहीद करना था (हालाँकि अल्लाह ने उन्हें बचा लिया)।

(5) शिक्षा और सबक (Lesson):

  1. किसी की इज्जत पर हमला बड़ा पाप है: किसी नेक और पाकदामन इंसान, खासकर महिलाओं, पर झूठा आरोप लगाना अल्लाह के नजदीक एक भारी जुर्म है। इस्लाम ऐसे किसी भी "बुहतान" की सख्त मनाही करता है।

  2. पैगम्बरों और उनके परिवारों का सम्मान: अल्लाह के सभी पैगम्बरों और उनके पवित्र परिवारों का सम्मान करना एक मुसलमान का ईमानी फर्ज है। उनके बारे में गलत और अपमानजनक बातें फैलाना सख्त हराम है।

  3. चमत्कारों पर ईमान: एक मुसलमान हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) के बिना पिता के पैदा होने के चमत्कार पर पूरा ईमान रखता है, क्योंकि यह अल्लाह की असीम शक्ति का प्रमाण है।

(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):

  • अतीत (Past) में: यह आयत उस ऐतिहासिक झूठ का खंडन करती है जो यहूदियों के एक गिरोह ने हज़रत मरयम पर लगाया था। यह मुसलमानों के लिए हज़रत मरयम और हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) के प्रति सही अकीदा (विश्वास) स्थापित करती है।

  • समकालीन वर्तमान (Contemporary Present) में: आज यह आयत बेहद प्रासंगिक है।

    • महिलाओं की बदनामी (Character Assassination): आज सोशल मीडिया और समाज में महिलाओं को बदनाम करना एक आम बात हो गई है। झूठे आरोप लगाकर उनकी इज्जत को नष्ट किया जाता है। यह आयत हमें याद दिलाती है कि यह "बुहतानन अज़ीमा" है और अल्लाह ऐसे लोगों से सख्त नफरत करता है।

    • धार्मिक हस्तियों का अपमान: आज भी विभिन्न धर्मों की पवित्र हस्तियों और पैगम्बरों के बारे में अपमानजनक बातें कही और लिखी जाती हैं। एक मुसलमान के तौर पर हमें हर पैगम्बर का सम्मान करना चाहिए और उनके बारे में गलत बातों का विरोध करना चाहिए।

    • फेक न्यूज और गप्पें: आज का दौर फेक न्यूज और अफवाहों का दौर है। लोग बिना पुष्टि किए किसी के भी बारे में कुछ भी कह देते हैं। यह आयत हमें सिखाती है कि किसी के बारे में बिना जाने कोई बात फैलाना या मान लेना एक बड़ा गुनाह है।

  • भविष्य (Future) में: जब तक समाज रहेगा, लोगों की नीयत और इज्जत पर हमले होते रहेंगे। यह आयत भविष्य की हर पीढ़ी के लिए एक स्थायी चेतावनी बनी रहेगी कि किसी की इज्जत को नष्ट करने का झूठा आरोप लगाना, अल्लाह की नजर में एक भारी अत्याचार है। यह हमें सिखाती रहेगी कि हमें हमेशा दूसरों की इज्जत का ख्याल रखना चाहिए, खासकर महिलाओं और धार्मिक शख्सियतों का, और झूठे आरोपों से दूर रहना चाहिए।

निष्कर्ष: यह आयत हमें बताती है कि बनी इसराईल का एक और बड़ा पाप हज़रत मरयम जैसी पवित्र हस्ती पर झूठा आरोप लगाना था। यह हमें सिखाती है कि ईमान सिर्फ अल्लाह पर विश्वास करने का नाम नहीं है, बल्कि उसके पैगम्बरों और उनके परिवारों का सम्मान करना और हर इंसान की इज्जत को बचाना भी है। कोई भी समाज ऐसे "बुहतान" (झूठे आरोपों) से सुरक्षित नहीं रह सकता, इसलिए हर मुसलमान का फर्ज है कि वह ऐसी गंदी बातों से अपने आप को और अपने समाज को बचाए।

कुरआन की आयत 4:155 की पूर्ण व्याख्या

 (1) पूरी आयत अरबी में:

"فَبِمَا نَقْضِهِم مِّيثَاقَهُمْ وَكُفْرِهِم بِآيَاتِ اللَّهِ وَقَتْلِهِمُ الْأَنبِيَاءَ بِغَيْرِ حَقٍّ وَقَوْلِهِمْ قُلُوبُنَا غُلْفٌ ۚ بَلْ طَبَعَ اللَّهُ عَلَيْهَا بِكُفْرِهِمْ فَلَا يُؤْمِنُونَ إِلَّا قَلِيلًا"

(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):

  • فَبِمَا (Fa-bimā): तो (सजा) इस कारण है।

  • نَقْضِهِم (Naqḍihim): उनके तोड़ने के कारण।

  • مِّيثَاقَهُمْ (Mīthāqahum): उनके वचन/समझौते को।

  • وَكُفْرِهِم (Wa Kufrihim): और उनके इनकार के कारण।

  • بِآيَاتِ (Bi-āyāti): आयतों (निशानियों) से।

  • اللَّهِ (Allāhi): अल्लाह की।

  • وَقَتْلِهِمُ (Wa Qatlihimu): और उनके मारने के कारण।

  • الْأَنبِيَاءَ (Al-Anbiyā'a): पैगम्बरों को।

  • بِغَيْرِ (Bighayri): बिना।

  • حَقٍّ (Haqqin): किसी अधिकार के (नाहक़)।

  • وَقَوْلِهِمْ (Wa Qawlihim): और उनके कहने के कारण।

  • قُلُوبُنَا (Qulūbunā): हमारे दिल।

  • غُلْفٌ (Ghulfun): ढके हुए/आवरण युक्त हैं।

  • بَلْ (Bal): बल्कि (सच तो यह है)।

  • طَبَعَ (Ṭaba'a): मुहर लगा दी।

  • اللَّهُ (Allāhu): अल्लाह ने।

  • عَلَيْهَا (Alayhā): उन (दिलों) पर।

  • بِكُفْرِهِم (Bi-kufrihim): उनके कुफ्र के कारण।

  • فَلَا (Falā): तो नहीं।

  • يُؤْمِنُونَ (Yu'minūna): वे ईमान लाते हैं।

  • إِلَّا (Illā): सिवाय।

  • قَلِيلًا (Qalīlan): बहुत थोड़ा।

(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:

यह आयत पिछली आयतों में चल रहे बनी इसराईल के इतिहास का अगला चरण पेश करती है। जहां पहले अल्लाह के अनुग्रहों का जिक्र था, वहीं अब उनकी अवज्ञा, पापों और उसके परिणामों का वर्णन है। यह बताती है कि आखिर किन कारणों से अल्लाह का कोप उन पर हुआ।

आयत का भावार्थ: "तो (उन पर अल्लाह का प्रकोप) उनके अपने वचन को तोड़ने, अल्लाह की आयतों का इनकार करने, नाहक़ पैगम्बरों को कत्ल करने और उनके इस कहने के कारण हुआ कि 'हमारे दिल ढके हुए हैं'। बल्कि (सच यह है कि) उनके कुफ्र के कारण अल्लाह ने उनके दिलों पर मुहर लगा दी है, इसलिए वे बहुत थोड़े ही (बातों पर) ईमान लाते हैं।"

(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):

यह आयत बनी इसराईल के चार प्रमुख अपराधों को गिनाती है, जिनकी वजह से वह अल्लाह की कृपा से वंचित हो गए।

उनके चार प्रमुख अपराध:

  1. अपना वचन तोड़ना (बिमा नकज़िहिम मीसाकहुम): यह सबसे बुनियादी अपराध था। उन्होंने बार-बार अल्लाह के साथ किए गए पक्के समझौतों और वचनों को तोड़ा। तौरात पर अमल करने, अल्लाह के आदेश मानने और पैगम्बरों की बात मानने का जो वचन उन्होंने दिया था, उसका उल्लंघन किया।

  2. अल्लाह की आयतों का इनकार (व कुफ्रिहिम बि-आयातिल्लाह): अल्लाह ने उन्हें तौरात के रूप में एक पूरी किताब दी, मूसा (अलैहिस्सलाम) जैसे पैगम्बर के माध्यम से अनेक चमत्कार (मोजिज़े) दिखाए, लेकिन उन्होंने उन स्पष्ट निशानियों का भी इनकार कर दिया। उन्होंने उन आयतों को तोड़-मरोड़कर पेश किया या उनकी सच्चाई को छिपाया।

  3. पैगम्बरों की हत्या (व कत्लिहिमुल अम्बिया-या बि-गैरि हक्किन): यह उनका सबसे जघन्य अपराध था। ऐतिहासिक रूप से यह साबित है कि बनी इसराईल ने कई पैगम्बरों की हत्या की, सिर्फ इसलिए क्योंकि वह उन्हें अल्लाह का सच्चा संदेश सुनाते थे और उनके गुनाहों पर टोकते थे। यह अल्लाह के प्रति सीधी चुनौती और उसकी रहमत के दूतों के प्रति सबसे बड़ा जुल्म था।

  4. घमंड भरा बहाना (व कौलिहिम कुलूबुना गुल्फुन): जब उन्हें सत्य का एहसास होता था या उनकी गलती साबित हो जाती थी, तो वह यह घमंड भरा बहाना बनाते थे कि "हमारे दिल (समझने के लिए) ढके हुए हैं।" यानी, "हम नहीं समझते, हम पर कोई जिम्मेदारी नहीं।" यह उनकी जिद और अहंकार को दर्शाता है।

अल्लाह की प्रतिक्रिया: "बल तबअल्लाहु अलैहा बि-कुफ्रिहिम..."

  • उनके लगातार कुफ्र और अवज्ञा के कारण, अल्लाह ने उनके दिलों पर मुहर लगा दी। यह एक दैवीय नियम है: जब कोई व्यक्ति या समुदाय लगातार सत्य को ठुकराता रहता है, तो अल्लाह उसकी बुद्धि और दिल की समझ को छीन लेता है।

  • इस मुहर का नतीजा यह हुआ कि "फला यु'मिनूना इल्ला कलीला" - वे बहुत थोड़ी सी बातों पर ही ईमान लाते हैं। यानी, वह सच्चाई को पूरी तरह से स्वीकार नहीं कर पाते। उनका ईमान आंशिक और दिखावटी रह जाता है। वह जो मन में आए, उसे मान लेते हैं और जो पसंद न आए, उसे छोड़ देते हैं।

(5) शिक्षा और सबक (Lesson):

  1. वचन की पवित्रता: अल्लाह के साथ किया गया वचन (ईमान, इस्लाम) अत्यंत पवित्र है। उसका पालन करना हर मुसलमान का सबसे पहला दायित्व है।

  2. सत्य को स्वीकार करो: अल्लाह की निशानियों (कुरआन, प्रकृति, विज्ञान) को देखकर उनसे सबक लेना चाहिए, न कि उनका इनकार करना चाहिए।

  3. आध्यात्मिक नेतृत्व का सम्मान: धार्मिक शिक्षकों और नेक लोगों का सम्मान करना चाहिए। उनके प्रति द्वेष और हिंसा की भावना रखना एक भयानक पाप है।

  4. अहंकार से बचो: "हमारे दिल बंद हैं" जैसा बहाना बनाना अहंकार की निशानी है। इंसान को विनम्र होकर सीखने और सुधरने के लिए तैयार रहना चाहिए।

(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):

  • अतीत (Past) में: यह आयत नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय के यहूदियों को उनकी ऐतिहासिक गलतियों का सामना कराती थी और समझाती थी कि उन पर अल्लाह का प्रकोप क्यों है।

  • समकालीन वर्तमान (Contemporary Present) में: आज यह आयत हर इंसान और विशेष रूप से मुसलमानों के लिए एक गहरी चेतावनी है।

    • धार्मिक वचनबद्धता: आज कई मुसलमान नमाज़, रोज़ा, हलाल-हराम जैसे अल्लाह के वचनों को तोड़ते हैं। यह आयत हमें याद दिलाती है कि यह एक गंभीर अपराध है।

    • कुरआन की आयतों से उदासीनता: कुरआन हमारे सामने है, लेकिन हम उसे पढ़ते-समझते नहीं हैं और उसकी शिक्षाओं को अपने जीवन में नहीं उतारते। यह एक प्रकार का व्यावहारिक इनकार (कुफ्र) ही है।

    • बहानेबाजी की संस्कृति: आज लोग अपनी धार्मिक लापरवाही के लिए तरह-तरह के बहाने बनाते हैं। "दिल साफ़ होना चाहिए," "हम तो अल्लाह को मानते हैं, बाकी चीजें जरूरी नहीं," आदि। यह ठीक वैसा ही है जैसा "कुलूबुना गुल्फुन" कहना।

    • दिलों की कठोरता: लगातार गुनाह और सत्य से मुंह मोड़ने का नतीजा यह होता है कि इंसान का दिल सख्त हो जाता है। उसे अच्छाई अच्छी नहीं लगती और बुराई बुरी नहीं लगती। यह अल्लाह की मुहर का आधुनिक रूप है।

  • भविष्य (Future) में: जब तक इंसान रहेगा, वचन तोड़ने, सत्य को न मानने और बहाने बनाने की प्रवृत्ति बनी रहेगी। यह आयत भविष्य की हर पीढ़ी के लिए एक स्थायी चेतावनी बनी रहेगी कि लगातार की गई अवज्ञा इंसान के दिल और दिमाग पर मुहर लगवा देती है। यह हमें सचेत करती रहेगी कि अपने ईमान और अमल को ताजा रखें, ताकि हमारे दिलों पर वह मुहर न लगे जो सत्य को स्वीकार करने की क्षमता को ही समाप्त कर देती है।

निष्कर्ष: यह आयत हमें बताती है कि अल्लाह का प्रकोप बिना कारण नहीं होता। यह इंसान की अपनी ही जिद, अवज्ञा और पापों का परिणाम होता है। बनी इसराईल का इतिहास हमारे लिए एक चेतावनी है कि हम अल्लाह के वचनों को न तोड़ें, उसकी आयतों से सीखें, उसके दीन के अनुयायियों का सम्मान करें और अहंकार से बचकर विनम्रता के साथ सत्य को स्वीकार करें। केवल इसी तरह हम अल्लाह की कृपा और मार्गदर्शन के हकदार बन सकते हैं।

कुरआन की आयत 4:154 की पूर्ण व्याख्या

 (1) पूरी आयत अरबी में:

"وَرَفَعْنَا فَوْقَهُمُ الطُّورَ بِمِيثَاقِهِمْ وَقُلْنَا لَهُمُ ادْخُلُوا الْبَابَ سُجَّدًا وَقُلْنَا لَهُمْ لَا تَعْدُوا فِي السَّبْتِ وَأَخَذْنَا مِنْهُم مِّيثَاقًا غَلِيظًا"

(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):

  • وَرَفَعْنَا (Wa Rafa'nā): और हमने उठाया।

  • فَوْقَهُمُ (Fawqahumu): उनके ऊपर।

  • الطُّورَ (At-Tūra): तूर पहाड़।

  • بِمِيثَاقِهِمْ (Bi-Mīthāqihim): उनके अहद (वचन/समझौते) के कारण।

  • وَقُلْنَا (Wa Qulnā): और हमने कहा।

  • لَهُمُ (Lahumu): उनसे।

  • ادْخُلُوا (Udhulū): दाखिल हो जाओ।

  • الْبَابَ (Al-Bāba): दरवाजे में।

  • سُجَّدًا (Sujjadan): सजदे की हालत में (झुककर)।

  • وَقُلْنَا (Wa Qulnā): और हमने कहा।

  • لَهُمْ (Lahum): उनसे।

  • لَا تَعْدُوا (Lā Ta'dū): सीमा मत लांघो।

  • فِي (Fī): में।

  • السَّبْتِ (As-Sabti): सब्त (शनिवार) के दिन।

  • وَأَخَذْنَا (Wa Akhadhnā): और हमने लिया।

  • مِنْهُم (Minhum): उनसे।

  • مِّيثَاقًا (Mīthāqan): एक मजबूत वचन/समझौता।

  • غَلِيظًا (Ghalīthan): सख्त, मजबूत।

(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:

यह आयत पिछली आयतों में चल रहे बनी इसराईल (इस्राएल की संतान) के इतिहास का सिलसिला जारी रखती है। यह उन विशेष अनुग्रहों (इनामात) और सख्त निर्देशों का वर्णन करती है जो अल्लाह ने उन्हें दिए थे, लेकिन बाद में उन्होंने उनका उल्लंघन किया। यह इस बात का प्रमाण है कि अल्लाह ने उन्हें हर प्रकार का मार्गदर्शन दिया था।

आयत का भावार्थ: "और हमने उनके वचन (अनुशासन में रहने का) लेने के लिए उनके सिर पर 'तूर' पहाड़ उठा लिया था, और हमने उनसे कहा: "इस (शहर के) दरवाजे में सजदे की हालत में (विनम्रता से) दाखिल हो जाओ", और हमने उनसे कहा: "सब्त (शनिवार) के दिन (निषिद्ध शिकार के) मामले में सीमा मत लांघो", और हमने उनसे एक अत्यंत मजबूत वचन (तौरात पर अमल करने का) लिया।"

(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):

यह आयत बनी इसराईल पर अल्लाह के तीन बड़े अनुग्रह और आदेशों का जिक्र करती है:

1. पहाड़ का उठाया जाना (व रफअना फौकहुमुत-तूर बि-मीसाकिहिम):

  • जब अल्लाह ने मूसा (अलैहिस्सलाम) के माध्यम से तौरात अवतरित की, तो बनी इसराईल ने उसकी बातों को हल्के में लिया और उस पर पूरी तरह अमल करने में ढील दिखाई।

  • इस पर अल्लाह ने पूरा 'तूर' पहाड़ उनके सिर के ऊपर इस तरह उठा लिया मानो वह गिरने वाला है। यह एक डरावनी निशानी थी ताकि वह अल्लाह के आदेशों को गंभीरता से लें और उसके प्रति पूरी वफादारी का वचन (मीसाक) दें। इस घटना ने दिखाया कि ईमान लाने के बाद अल्लाह के आदेशों से मुंह मोड़ना कितना खतरनाक है।

2. सजदे की हालत में दरवाजे में दाखिल होने का आदेश (व कुलना लहुमुद्खुलुल बाबा सुज्जदा):

  • जब बनी इसराईल को अल्लाह ने फिलिस्तीन (बैतुल मुक़द्दस) में प्रवेश करने का आदेश दिया, तो उनसे कहा गया कि शहर के दरवाजे में अत्यंत विनम्रता के साथ, सजदे की स्थिति में (झुककर) प्रवेश करें।

  • यह आदेश उनकी विनम्रता, अल्लाह के प्रति कृतज्ञता और आज्ञाकारिता की परीक्षा थी। दुर्भाग्य से, उन्होंने इस आदेश का पालन नहीं किया और घमंड के साथ दरवाजे में घुस गए।

3. सब्त (शनिवार) की हदूद का पालन (व कुलना लहुम ला तअदू फिस-सब्ति):

  • अल्लाह ने उन पर शनिवार का दिन पवित्र रखने का आदेश दिया था और उस दिन समुद्र में मछली पकड़ने पर पाबंदी लगा दी थी (क्योंकि मछलियां उस दिन अधिक संख्या में आती थीं)। यह उनकी आज्ञापालन की परीक्षा थी।

  • उन्होंने इस आदेश के साथ धोखा किया और हल्के-फुल्के बहाने बनाकर शनिवार के दिन भी मछली पकड़ने लगे। इसी जुल्म (सीमा उल्लंघन) के कारण अल्लाह ने उन्हें बंदर का रूप दे दिया था।

4. मजबूत वचन (व अखजना मिनहुम मीसाकन गलीजा):

  • इन सब घटनाओं के बाद, अल्लाह ने उनसे एक बहुत ही सख्त और मजबूत वचन (समझौता) लिया कि वह तौरात की शिक्षाओं का पालन करेंगे और अल्लाह के आदेशों को नहीं तोड़ेंगे। लेकिन उन्होंने इस सख्त वचन को भी तोड़ दिया।

(5) शिक्षा और सबक (Lesson):

  1. अल्लाह के आदेशों की गंभीरता: अल्लाह के दिए हुए आदेशों और सीमाओं (हदूद) को गंभीरता से लेना चाहिए। उनके साथ खिलवाड़ या उल्लंघन का परिणाम बहुत भयानक हो सकता है।

  2. विनम्रता का महत्व: अल्लाह की नेमतों और जीत के बाद इंसान को घमंड नहीं, बल्कि और अधिक विनम्र और आभारी होना चाहिए।

  3. परीक्षा की प्रकृति: अल्लाह अक्सर इंसान की आज्ञाकारिता की छोटी-छोटी चीजों से परीक्षा लेता है। सब्त के दिन मछली पकड़ने की मनाही इसी तरह की एक परीक्षा थी।

  4. वचनबद्धता: अल्लाह के साथ किया गया वचन (ईमान का अकीदा, नमाज, रोजा आदि) एक पवित्र समझौता है, जिसे पूरी ईमानदारी से निभाना चाहिए।

(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):

  • अतीत (Past) में: यह आयत नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय के यहूदियों को उनके अपने इतिहास का स्मरण कराती थी और दिखाती थी कि उनके पूर्वजों ने अल्लाह के इतने अनुग्रहों के बावजूद कितनी बार अवज्ञा की।

  • समकालीन वर्तमान (Contemporary Present) में: आज यह आयत हर मुसलमान के लिए एक दर्पण का काम करती है।

    • धार्मिक आदेशों के साथ समझौता: आज कई मुसलमान धार्मिक आदेशों के साथ समझौता करते हैं। वह कहते हैं, "नमाज़ जरूरी है, लेकिन व्यवसाय के चलते नहीं पढ़ सकते," या "हिजाब जरूरी है, लेकिन सोशल प्रेशर के कारण नहीं कर सकते।" यह ठीक वैसा ही है जैसे सब्त के दिन मछली पकड़ने के बहाने बनाना।

    • विनम्रता का अभाव: आज इंसान जब कामयाबी हासिल करता है, तो वह अल्लाह का शुक्र अदा करने के बजाय अपनी काबिलियत पर घमंड करने लगता है। यह आयत हमें सिखाती है कि हर सफलता के बाद अल्लाह के सामने विनम्रता (सजदा) जरूरी है।

    • ईमान की जिम्मेदारी: हमने भी अल्लाह के साथ एक "मीसाके गलीज" (मजबूत वचन) लिया है कि हम उसकी इबादत करेंगे और उसके हुक्मों का पालन करेंगे। यह आयत हमें इस वचन को याद दिलाती है और इसे तोड़ने वालों के बुरे अंजाम से सावधान करती है।

  • भविष्य (Future) में: जब तक इंसान रहेगा, वह अल्लाह के आदेशों के प्रति लापरवाही और उनके साथ समझौता करने की प्रवृत्ति रखेगा। यह आयत भविष्य की हर पीढ़ी के लिए एक स्थायी चेतावनी बनी रहेगी कि अल्लाह की नेमतें उसकी आज्ञाकारिता की मांग करती हैं। यह हमें सिखाती रहेगी कि विनम्रता, आज्ञापालन और वचनबद्धता ही सच्ची सफलता की कुंजी है, न कि उल्लंघन और धोखा।

निष्कर्ष: यह आयत हमें बताती है कि अल्लाह ने बनी इसराईल को उनकी जिद के कारण डरावनी निशानी दिखाई, उनकी विनम्रता की परीक्षा ली और उन्हें छोटी-छोटी परीक्षाओं में डाला, लेकिन उन्होंने हर मोड़ पर अवज्ञा ही की। यह इतिहास हम मुसलमानों के लिए एक सबक है ताकि हम अल्लाह के आदेशों का पालन करें, उसकी नेमतों पर घमंड न करें और उसके साथ किए गए अपने वचन (ईमान) को मजबूती से थामें रहें।

कुरआन की आयत 4:153 की पूर्ण व्याख्या

 (1) पूरी आयत अरबी में:

"يَسْأَلُكَ أَهْلُ الْكِتَابِ أَن تُنَزِّلَ عَلَيْهِمْ كِتَابًا مِّنَ السَّمَاءِ ۚ فَقَدْ سَأَلُوا مُوسَىٰ أَكْبَرَ مِن ذَٰلِكَ فَقَالُوا أَرِنَا اللَّهَ جَهْرَةً فَأَخَذَتْهُمُ الصَّاعِقَةُ بِظُلْمِهِمْ ۚ ثُمَّ اتَّخَذُوا الْعِجْلَ مِن بَعْدِ مَا جَاءَتْهُمُ الْبَيِّنَاتُ فَعَفَوْنَا عَن ذَٰلِكَ ۚ وَآتَيْنَا مُوسَىٰ سُلْطَانًا مُّبِينًا"

(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):

  • يَسْأَلُكَ (Yas'aluka): तुमसे माँगते हैं, पूछते हैं।

  • أَهْلُ (Ahlु): लोग।

  • الْكِتَابِ (Al-Kitābi): किताब (के, यानू ईसाई)।

  • أَن (An): कि।

  • تُنَزِّلَ (Tunazzila): तुम उतारो।

  • عَلَيْهِمْ (Alayhim): उन पर।

  • كِتَابًا (Kitāban): एक किताब।

  • مِّنَ (Mina): से।

  • السَّمَاءِ (As-Samā'i): आसमान।

  • فَقَدْ (Faqad): तो निश्चित रूप से।

  • سَأَلُوا (Sa'alū): उन्होंने माँगा था।

  • مُوسَىٰ (Mūsā): मूसा (अलैहिस्सलाम) से।

  • أَكْبَرَ (Akbara): अधिक बड़ी (चीज़)।

  • مِن (Min): से।

  • ذَٰلِكَ (Dhālika): उस (माँग) से।

  • فَقَالُوا (Fa-qālū): तो उन्होंने कहा।

  • أَرِنَا (Arinā): हमें दिखाओ।

  • اللَّهَ (Allāha): अल्लाह को।

  • جَهْرَةً (Jahratan): खुल्लमखुल्ला, स्पष्ट रूप से।

  • فَأَخَذَتْهُمُ (Fa-akhathathumu): तो पकड़ लिया उन्हें।

  • الصَّاعِقَةُ (As-Sā'iqatu): बिजली का तड़प/प्रलय।

  • بِظُلْمِهِمْ (Bi-zulmihim): उनके अत्याचार (जिद) के कारण।

  • ثُمَّ (Thumma): फिर, इसके बाद।

  • اتَّخَذُوا (Ittakhadhū): उन्होंने बना लिया।

  • الْعِجْلَ (Al-'Ijla): बछड़े (की मूर्ति) को।

  • مِن بَعْدِ (Min ba'di): के बाद।

  • مَا (Mā): जब।

  • جَاءَتْهُمُ (Jā'athumu): आ चुके थे उनके पास।

  • الْبَيِّنَاتُ (Al-Bayyinātu): स्पष्ट प्रमाण (मोजिज़े)।

  • فَعَفَوْنَا (Fa-'afawnā): तो हमने माफ़ कर दिया।

  • عَن (ʿAn): से।

  • ذَٰلِكَ (Dhālika): उस (गुनाह) को।

  • وَآتَيْنَا (Wa Ātaynā): और हमने दिया।

  • مُوسَىٰ (Mūsā): मूसा (अलैहिस्सलाम) को।

  • سُلْطَانًا (Sulṭānan): स्पष्ट प्रमाण/अधिकार।

  • مُّبِينًا (Mubīnan): साफ़, स्पष्ट।

(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:

यह आयत मदीना के यहूदियों के एक और दुराग्रह का जवाब है। वह नबी मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से कहते थे कि यदि आप सच्चे पैगम्बर हैं तो हमारे लिए आसमान से कोई किताब सीधे उतार लाएं। इस आयत में अल्लाह उनकी इस हठधर्मिता का जवाब देते हुए उनके पूर्वजों के इतिहास से एक उदाहरण पेश करता है कि तुम्हारे बाप-दादा भी इससे भी बड़ी माँग कर चुके हैं और उसका क्या नतीजा हुआ था।

आयत का भावार्थ: "ऐ पैगम्बर! अहले-किताब (यहूदी) तुमसे माँग करते हैं कि तुम उनके लिए आसमान से कोई किताब उतार लाओ। हालांकि उन्होंने मूसा से इससे भी बड़ी चीज़ माँगी थी, उन्होंने कहा था: "हमें अल्लाह को खुल्लमखुल्ला दिखाओ।" तो उनके इस ज़ुल्म (हठ) के कारण बिजली का कड़का (प्रलय) ने उन्हें आ लिया। फिर उन्होंने साफ़-साफ़ निशानियाँ आ जाने के बाद बछड़े को (माबूद) बना लिया, फिर भी हमने उस (गुनाह) को माफ़ कर दिया और हमने मूसा को खुल्ली हुज्जत (स्पष्ट प्रमाण) प्रदान की।"

(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):

यह आयत अहले-किताब (यहूदियों) की हठधर्मिता और अविश्वास की प्रवृत्ति को उजागर करती है।

  • अनुचित माँग: यहूदी पैगम्बर से एक तमाशा (Miracle on demand) की माँग कर रहे थे। उनकी माँग ईमान लाने के लिए नहीं, बल्कि पैगम्बर को परखने और उनका मज़ाक उड़ाने के लिए थी। ईमान तो दिल से स्वीकार करने का नाम है, न कि जबरदस्ती मोजिजे देखकर मानने का।

  • ऐतिहासिक पृष्ठभूमि - पहला पाप: "हमें अल्लाह को खुल्लमखुल्ला दिखाओ"

    • यह माँग कुफ्र और अविश्वास की चरम सीमा थी। अल्लाह नूर (प्रकाश) है, उसे भौतिक आँखों से देखना संभव नहीं। इस माँग ने उनकी अवज्ञा और अत्याचार (ज़ुल्म) को दर्शाया।

    • सजा: इसकी सजा में एक भीषण बिजली का कड़का (साइक़ा) आया जिसने उन्हें झकझोर कर रख दिया।

  • दूसरा पाप: बछड़े की पूजा

    • हैरानी की बात यह है कि इतनी बड़ी सजा और मूसा (अलैहिस्सलाम) के स्पष्ट मोजिज़े (जैसे लाठी का साँप बनना, हाथ का चमकना आदि) देखने के बाद भी, जब मूसा (अलैहिस्सलाम) तूर पहाड़ पर गए, तो उन्होंने एक साँचे में ढले हुए बछड़े की पूजा शुरू कर दी। यह शिर्क (अल्लाह के साथ साझी ठहराना) का सबसे बड़ा गुनाह था।

  • अल्लाह की दया: "फ़ा-अफ़वना अन ज़ालिक" (तो हमने उसे माफ़ कर दिया)

    • यह अल्लाह की असीम दया को दर्शाता है। शिर्क जैसे घोर पाप के बाद भी, जब उन्होंने तौबा की, तो अल्लाह ने उन्हें माफ़ कर दिया। यह दिखाता है कि अल्लाह की माफ़ी कितनी विशाल है।

  • मूसा (अलैहिस्सलाम) का समर्थन: "वा आतैना मूसा सुल्तानम मुबीना" (और हमने मूसा को स्पष्ट प्रमाण दिए)

    • इसके बावजूद कि उनकी कौम ने उनका साथ नहीं दिया, अल्लाह ने मूसा (अलैहिस्सलाम) का समर्थन जारी रखा और उन्हें और भी स्पष्ट प्रमाण और अधिकार दिए।

(5) शिक्षा और सबक (Lesson):

  1. ईमान के लिए बहाने न ढूंढें: ईमान दिल की शुद्धता और सच्ची तलाश का नाम है। अगर इंसान मानना नहीं चाहता तो वह हजारों माँगें और शर्तें लगा सकता है। सच्चा ईमान उसके लिए है जो सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार है।

  2. अल्लाह की महानता का एहसास: अल्लाह सृष्टि का पालनहार है, कोई तमाशा दिखाने वाला नहीं। उसे मनुष्य की शर्तों पर अपनी निशानियाँ दिखानी की जरूरत नहीं है। प्रकृति और कुरआन की आयतें ही उसके अस्तित्व के लिए पर्याप्त प्रमाण हैं।

  3. अल्लाह की दया से निराश न हों: कोई भी इंसान कितना भी बड़ा गुनाह क्यों न करे, अगर वह सच्चे दिल से तौबा करे तो अल्लाह की दया और माफ़ी उसके लिए तैयार है, जैसा कि बनी इसराईल के मामले में हुआ।

(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):

  • अतीत (Past) में: यह आयत नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय के यहूदियों की हठधर्मिता का जवाब थी और उन्हें उनके अपने इतिहास से सबक सिखाती थी।

  • समकालीन वर्तमान (Contemporary Present) में: आज यह आयत बेहद प्रासंगिक है।

    • विज्ञान और ईमान: आज कुछ लोग कहते हैं, "अगर अल्लाह है तो उसे वैज्ञानिक रूप से साबित करो," या "कोई चमत्कार दिखाओ।" यह आयत बताती है कि यह नासमझी और हठ का ही एक आधुनिक रूप है। ईमान विज्ञान और तर्क के विपरीत नहीं है, लेकिन वह दिल का एक कदम है जो सबूतों को देखने के बाद उठाया जाता है।

    • धार्मिक हठधर्मिता: आज भी कई लोग धर्म को स्वीकार करने के लिए तरह-तरह की शर्तें लगाते हैं। वह कहते हैं, "अगर ऐसा हो जाए तो मैं मानूंगा।" यह आयत ऐसी मानसिकता को गलत ठहराती है।

    • आध्यात्मिक असंतोष: बनी इसराईल की तरह, आज भी कुछ लोगों का ईमान कमजोर होता है। वह एक संकट के बाद दूसरे में पड़ जाते हैं और आसान रास्ते (जैसे बछड़े की पूजा) की तलाश में भटक जाते हैं, जो आधुनिक समय में धन, शोहरत, शक्ति आदि की मूर्तिपूजा के रूप में सामने आता है।

  • भविष्य (Future) में: जब तक इंसान रहेगा, वह तार्किक और वैज्ञानिक दबाव में ईमान के लिए "दृश्य प्रमाण" की माँग करता रहेगा। यह आयत भविष्य की हर पीढ़ी को यह याद दिलाती रहेगी कि ईमान अंधविश्वास नहीं है, बल्कि यह बुद्धि और हृदय का सामंजस्य है। यह उन्हें सिखाती रहेगी कि अल्लाह की निशानियाँ पहले से ही ब्रह्मांड और हमारे अपने अस्तित्व में मौजूद हैं, बस जरूरत है उन्हें देखने और समझने की।

निष्कर्ष: यह आयत हमें सिखाती है कि ईमान की राह हठ और तमाशेबीनी की नहीं, बल्कि विनम्रता और सत्य की तलाश की है। अल्लाह ने अपने पैगम्बरों और किताबों के माध्यम से मार्गदर्शन भेज दिया है। अब हमारा फर्ज है कि हम उसे दिल से स्वीकार करें, उस पर अमल करें और अल्लाह की असीम दया और माफ़ी के हकदार बनें।